Manuscript Number : SHISRRJ181220
अवधारणात्मक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में अनुवाद की भूमिका
Authors(1) :-डाॅ0 अनिल कुमार सिंह तुलनात्मक साहित्य कोई स्वायŸा सर्जनात्मक विधा न होकर एक ही भाषा या विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य के अध्ययन की एक विशेष दृष्टि मात्र है। भारत जैसे बहुभाषी एवं सांस्कृतिक बहुलता वाले देश में तुुलनात्मक साहित्य के अध्ययन ने राष्ट्रीय एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बिना अच्छे अनुवादों के तुलनात्मक साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती। अनुवाद एक सांस्कृतिक गतिविधि है। अपने स्वभाव से ही यह अन्तरसांस्कृृतिक तथा अन्तरसामाजिक होती है। अगर ऐसा न हो तो स्रोत भाषा के साहित्य की मूल संवेदना ही नष्ट हो जायेगी। अनुवाद एक तरह से स्रोत भाषा के साहित्य का लक्ष्य भाषा में सृजनात्मक अन्तरण होता है। तुलनात्मक साहित्य अध्ययन पर हुए वैश्विक चिंतन में इसकी अवतारणा बहुसंस्कृतिवाद एवं सास्कृतिक अध्ययनों के रूप में हुई है। पुराने औपनिवेशिक काल में ‘यूरोप केन्द्रित’ तुलनात्मक अध्ययन एवं शीतयुद्ध के दौर के क्षेत्रीय अध्ययनों और ‘तुलनात्मक अध्ययन जो कि पच््रछन्न रूप से औपनिवेशिक वर्चस्ववादी दृष्टिकोण एवं साम्राज्यवादी न्यस्त रणनीतियों का हिस्सा थाऋ उसका अन्त हो चुका है। तुलनात्मक साहित्य अध्ययन ने नई अमिŸााओं, लैंगिक अध्ययनों, जाति या रंग के आधारपर विषमताओं के अध्ययनों को भी अपने दायरे में ले लिया है। तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन में अनुवाद की अहम भूमिका होती है। अन्तरभाषिक अनुवादों ने भारतीय विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य अध्ययनों को जब नई गति और ऊर्जा प्रदान की है। एक अन्तरसाहित्यिक संचार का माध्यम होने के कारण तुलनात्मक साहित्य अध्ययन को समृह् बनाने में अनुवादों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। अनुवा अपने-आप में तुलानत्मक गतिविधि है। अुवाद विभिन्न साहित्यिक आंदोलनों के आपसी आदान-प्रदान को सुगम बनाता है। अनुवाद मात्र मूल कृति का भाषानुवाद नहीं होता। अनुवाद एक ही समय में स्रोत भाषा से दूर जाने तथा स्रोत भाषा को उसी समय में पुनरावस्थित करने का यत्न करता है। पुराने समय से ही हमारी भू-राजनैतिक स्थिति कुछ ऐसी रही है कि हमारा सामना निरंतर नवीन संस्कृतियों से होता रहा है। भारतीय साहित्य की अवधारणा इसी अनेकता में एकता के सिह्ान्त से परिचालित हैं। स्वतंत्र भारत में राज्यों की स्थापना भाषा के आधार पर की गई थी किन्तु यह भाषायी प्रान्तीयता हमारी विचारगत भिन्नता का आधार कभी नहीं बन पाई। स्वातंत्र्योŸार भारत में अनुवाद गतिविधियों की महŸाा को स्वीकार करने के लिए यह आवश्यक है कि हम भारत की बहुभाषी एवं सांस्कृतिक बहुलता के संदर्भ में उसे एक सामाजिक, राजनीतिक आवश्यकता के रूप में ग्रहण करें। भारतीय साहित्य की अवधारणा के विकसित होते जाने एवं स्थापित होने के लिए यह अनिवार्य है।
डाॅ0 अनिल कुमार सिंह अनुवाद, तुलनात्मक अध्ययन, राष्ट्रीयता, भारतीय साहित्य, संस्कृति, बहुलता, भाषा, एकीकरण, सांस्कृतिक गतिविधि, स्रोत भाषा, लक्ष्य भाषा। Publication Details Published in : Volume 1 | Issue 2 | July-August 2018 Article Preview
एसोशिएट प्रोफेसर: हिन्दी-विभाग, का0सु0 साकेत पी0जी0 कालेज, अयोध्या, फैजाबाद,उत्तर प्रदेश।
Date of Publication : 2018-08-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 164-172
Manuscript Number : SHISRRJ181220
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ181220