भास के रूपकों में आश्रम - व्यवस्था

Authors(1) :-डाॅ0 सविता ओझा

हिन्दू विचारकों ने मानव-जीवन को समग्रतापूर्वक व्यवस्थित रूप प्रदान करने तथा आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए आश्रम-व्यवस्था का विधान किया था। यदि वर्ण-व्यवस्था का उद्देश्य समाज को व्यवस्थित करना था, तो आश्रम-व्यवस्था का उद्देश्य मानव की ऐहिक एवं पारलौकिक उन्नति करना था। व्यवस्थाकारों ने जीवन की वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए ज्ञान, कत्र्तव्य, त्याग और अध्यात्म के आधार पर मानव जीवन को ब्रह्मचर्य गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास नामक चार आश्रमों में विभाजित किया, जिसका अन्तिम लक्ष्य था- मोक्ष की प्राप्ति। मानव-जीवन का चार भागों में विभाजित होने का सन्दर्भ उत्तरवैदिककालिक है। ऐतरेय ब्राह्मण और तैत्तिरीय संहिता में चारों आश्रमों का उल्लेख मिलता है।1 जाबालोपनिषद् में भी चारों आश्रमों का अभिधान किया गया है।

Authors and Affiliations

डाॅ0 सविता ओझा
एसो0 प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, ने0ग्रा0भा0मा0वि0वि0, प्रयागराज।, भारत

  1. ‘ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत्। गृही भूत्वा वनी भवेत्, वनी भूत्वा प्रव्रजेत।।‘ -ऐतरेय ब्राह्मण 35/2 एवं तैत्तिरीय संहिता 6/2/75
  2. ‘‘ब्रह्मचर्यं परिसमाप्य गृही भवेद् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रवजेत्। यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद् गृहाद्वा वनाद्वा। यदहरेवविरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत्।‘‘ -जाबालोपनिषद् 4 (द्रष्टव्य-धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृ0- 266)
  3. पंचरात्रम् 1/21
  4. ‘ततः कतिपयकालातिक्रमे कदाचित्फलमूलसमित्कुशकुसुमाहरणाय गतवता गुरुणा सहानुगतोऽस्मि।‘ (कर्णभारम्, प्रथमोऽङ्कः, पृ0 10)
  5. ‘प्राणाधिकोऽस्मि भवता च कृतोपदेशः, शूरेषु यामि गणनां कृतसाहसोऽस्मि। स्वच्छन्दतो वद किमिच्छसि किं ददानि, हस्ते स्थिता ममगदा भवतश्च सर्वम्।।‘ (पंचरात्रम् 1/31)
  6. ‘कस्मात् त्वं कृतसमावर्तो वटुक इव त्वरसे।‘ (अविमारकम्, चतुर्थाेऽङ्कः, पृ0 118)
  7. यौगन्धरायणः - अथ परिसमाप्ता विद्या ? ब्रह्मचारी - न खलु तावत्। यौगन्धरायणः - यद्यनवसिता विद्या, किमागमनप्रयोजनम् ? (स्वप्नवासवदत्तम्, प्रथमोऽङ्कः, पृ0 36-37)
  8. तैत्तिरीय आरण्यक 2/15 (द्रष्टव्य धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृ0 258)
  9. शतपथ ब्राह्मण 11/3/3/7 (द्रष्टव्य धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृ0 262)
  10. चारुदत्तम्, प्रथमोऽङ्कः, पृ0 42
  11. प्रतिमानाटकम्, पंचमोऽङ्कः, पृ0 157-159
  12. ‘‘प्रांचंयज्ञं चकृम वर्धतांगीः, समिद्भिरग्निं नमसा दुवस्यन्।‘‘ (ऋग्वेद 3/1/2)
  13. ‘द्विजोच्छिष्टैरन्नैः प्रकुसुमितकाशा इव दिशो हविर्धूमैः सर्वे हृतकुसुमगन्धास्तरुगणाः।।‘ (पंचरात्रम्
  14. ‘कृतं देवकार्यमिति।‘ - (चारुदत्तम्, प्रथमोऽङ्कः, पृ0 37)
  15. चारुदत्तम्, प्रथमोऽङ्कः, पृ0 28
  16. प्रतिमानाटकम्, पंचमोऽङ्कः, पृ0 155
  17. प्रतिमानाटकम्, पंचमोऽङ्कः, पृ0 161
  18. ‘धीरस्याश्रमसंश्रितस्य वसतस्तुष्टस्य वन्यैः फलै- र्मानार्हस्य जनस्य वल्कलवतस्त्रासः समुत्पाद्यते।‘ (स्वप्नवासवदत्तम् 1/3)
  19. स्वप्नवासवदत्तम् 1/5
  20. स्वप्नवासवदत्तम्, प्रथमोऽङ्कः, पृ0 20
  21. यजुर्वेदसंहिता 40/7
  22. सौमित्रे! श्रूयताम्। वल्कलानि नाम- तपःसङ्ग्रामकवचं नियमद्विरदाङ््कुशः। खलीनमिन्द्रियाश्वानां गृह्यतां धर्मसारथिः।। (प्रतिमानाटकम् 1/28)
  23. ‘ततः प्रविशति परिव्राजकवेशो यौगन्धरायणः।‘ (स्वप्नवासवदत्तम्, प्रथमोऽङ्कः, पृ0 6)
  24. ‘यदि वस्त्रमपनयामि श्रमणको भवामि।‘ (अविमारकम्, पंचमोऽङ्कः पृ0 135)।

Publication Details

Published in : Volume 2 | Issue 1 | January-February 2019
Date of Publication : 2019-01-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 17-20
Manuscript Number : SHISRRJ19216
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डाॅ0 सविता ओझा, "भास के रूपकों में आश्रम - व्यवस्था", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 2, Issue 1, pp.17-20, January-February.2019
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ19216

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