Manuscript Number : SHISRRJ192313
संस्कृत साहित्य में सामाजिक न्याय : दशा-दिशा
Authors(1) :-डा. विभाष चन्द्र धर्म, क्षेत्र और सम्प्रदाय की व्याख्या आज विघटनकारी तत्त्व कृतसंकल्प होकर समाज को जोड़ने के लिए नहीं, बल्कि तोड़ने के लिए करते हैं । आधी आबादी जहाँ रोजी-रोटी और मान-सम्मान के लिए चिंतित है, वहीं मानव-समाज की समरसता, सामाजिक न्याय खतरे में पड़ गए हैं। दुर्भाग्य है कि जो धर्म सन्तों के उपदेश और सामाजिक न्याय की अवधारणाएँ बनकर समाज का पथ-निर्देश करता था, वही आज विघटनकारी तत्त्वों के हाथ का खिलौना बनकर रह गया है ।
डा. विभाष चन्द्र धर्म, क्षेत्र, सम्प्रदाय, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रीयतावाद| 1.शुक्लयजुर्वेद – ३६ १८ उत्तरार्द्ध 2.ऋग्वेद - १.८६. २ 3.वाल्मीकि रामायण- वा० का०- १.१२ 4.महाभारत भीष्म पर्व-२-१४ उत्तरार्द्ध 5.वहीं उद्योगपर्व - ३५, ५८ 6.श्रीमद्भागवत पुराण ६. ५, १४ 7.उत्तरार्द्ध महाभारत-अनुशासन पर्व ३२-१६ 8.पूवार्द्ध वहीं शान्तिपर्व २७७, १५ 9.शुक्लयजुर्वेद- २५, २१ 10.अथर्ववेद - ७. ११५, ४ 11.श्रीमद्भागवत पुराण- ७, ८, २०११. Publication Details Published in : Volume 2 | Issue 3 | May-June 2019 Article Preview
प्रशिक्षित स्नातक शिक्षिक, केन्द्रीय विद्यालय क्रम सं.-2,
गया, बिहार,भारत
Date of Publication : 2019-05-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 55-59
Manuscript Number : SHISRRJ192313
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ192313