संस्कृत साहित्य में सामाजिक न्याय : दशा-दिशा

Authors(1) :-डा. विभाष चन्द्र

धर्म, क्षेत्र और सम्प्रदाय की व्याख्या आज विघटनकारी तत्त्व कृतसंकल्प होकर समाज को जोड़ने के लिए नहीं, बल्कि तोड़ने के लिए करते हैं । आधी आबादी जहाँ रोजी-रोटी और मान-सम्मान के लिए चिंतित है, वहीं मानव-समाज की समरसता, सामाजिक न्याय खतरे में पड़ गए हैं। दुर्भाग्य है कि जो धर्म सन्तों के उपदेश और सामाजिक न्याय की अवधारणाएँ बनकर समाज का पथ-निर्देश करता था, वही आज विघटनकारी तत्त्वों के हाथ का खिलौना बनकर रह गया है ।

Authors and Affiliations

डा. विभाष चन्द्र
प्रशिक्षित स्नातक शिक्षिक, केन्द्रीय विद्यालय क्रम सं.-2, गया, बिहार,भारत

धर्म, क्षेत्र, सम्प्रदाय, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रीयतावाद|

1.शुक्लयजुर्वेद – ३६ १८ उत्तरार्द्ध

2.ऋग्वेद - १.८६. २

3.वाल्मीकि रामायण- वा० का०- १.१२

4.महाभारत भीष्म पर्व-२-१४ उत्तरार्द्ध

5.वहीं उद्योगपर्व - ३५, ५८

6.श्रीमद्भागवत पुराण ६. ५, १४

7.उत्तरार्द्ध महाभारत-अनुशासन पर्व ३२-१६

8.पूवार्द्ध वहीं शान्तिपर्व २७७, १५

9.शुक्लयजुर्वेद- २५, २१

10.अथर्ववेद - ७. ११५, ४

11.श्रीमद्भागवत पुराण- ७, ८, २०११.

Publication Details

Published in : Volume 2 | Issue 3 | May-June 2019
Date of Publication : 2019-05-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 55-59
Manuscript Number : SHISRRJ192313
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डा. विभाष चन्द्र, "संस्कृत साहित्य में सामाजिक न्याय : दशा-दिशा", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 2, Issue 3, pp.55-59, May-June.2019
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ192313

Article Preview