अद्वैतवेदान्त के अनुसार जीव जगत की व्याख्या

Authors(1) :-डाॅ. अंकिता मालवीय

प्रत्यगभिन्न ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता और अनेकात्मक जगत् की मायामयता। आत्मा, अनुभूतिस्वरूप होने से स्वयं सिद्ध है। इस विषय में ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’’ इत्यादि श्रुतियाँ प्रमाण है। प्रतीयमान संसार स्वप्न के समान है। राग, द्वेषादि दोषों से सम्बद्ध है। जैसे स्वप्न निद्राकाल में आभासित होता है और जाग्रत में उसका बाध हो जाता है उसी प्रकार यह जगत् भी अज्ञान काल में प्रतीत होता है और ज्ञान होने पर बाधित हो जाता है।

Authors and Affiliations

डाॅ. अंकिता मालवीय
पूर्व शोधछात्रा, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज,भारत

सत्यं, ज्ञानमनन्तं, ब्रह्म, श्रुतियाँ, प्रमाण, स्वप्न, निद्राकाल।

  1. अस्ति आत्मा जीवारव्यः शरीरेन्द्रियप×चराध्यक्षः कर्मफलसम्बन्धी।-(शा0भा0 2.3.17)
  2. अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।-गीता-2/17
  3. यत्पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे।
  4. अविद्योपाधिको जीव एव साक्षात् द्रष्टत्वात् साक्षीः जीवस्यान्तः करणात्तादात्म्यापत्या कर्तृत्वाद्यारोपभावत्वेऽपि स्वयमुदासीनत्वात्।।-सिद्धान्तलेश-1
  5. श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
  6. आदावन्ते च यन्नास्ति वत्र्तमानेऽपि तत्तथा।
  7. नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।-गीता
  8. संसारः स्वप्नतुल्ये हि सगद्वेषादिसंकुलः। स्वकाले सत्यवद्भाति प्रबोधेऽसत्यवद्भवेत्।।
  9. क्षीरवद् द्रव्यस्वभावात्। शा0भा0 2.1.24
  10. नित्यपरितृप्तत्वम्।-शा0भा0 2.1.30
  11. प्रप×चस्य परिणाम्युपादानं माया न ब्रह्मेति सिद्धान्तः।
  12. दृष्टे भवति प्रभवति न भवति किं? भवतिरष्कारः (षट्पटी)

Publication Details

Published in : Volume 2 | Issue 3 | May-June 2019
Date of Publication : 2019-05-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 60-65
Manuscript Number : SHISRRJ192314
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डाॅ. अंकिता मालवीय, "अद्वैतवेदान्त के अनुसार जीव जगत की व्याख्या", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 2, Issue 3, pp.60-65, May-June.2019
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ192314

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