प. दीनदयाल उपाध्याय के समष्टि से परमेष्ठि तक का चिन्तन का प्रभाव

Authors(1) :-डॉ. कल्याण सिंह मीना

चारों पुरुषार्थों से परिपूर्ण व्यक्ति-जीवन से प्रारम्भ कर आगे चलकर परिवार, समाज, राष्ट्र और समूचे मानव-समाज तक की बढ़ती कक्षाओं और उनके बीच परस्पर एकात्म संबंधों का विचार हमने अब तक किया। किन्तु भारतीय संस्कृति की इसे भूमि में विकसित एकात्म दर्शन' केवल मानव के पास आकर ही नहीं रुकता। वह प्रकृति की मानवेतर प्राणि-सृष्टि. वनस्पति-सृष्टि और प्रकृति की दी हुई अन्य बातों का भी विचार करता है। मानव-जीवन का इस प्रकार सर्वागीण विचार करते समय इन सभी बातों का उसमें समावेश करना एक परिपूर्ण एकात्म दर्शन के नाते उपयुक्त एवं अपरिहार्य भी है। जल, वायु, सूर्यप्रकाश, वनस्पति एवं प्राणी, खनिज सम्पदा आदि हमारे जीवन के साथ ऐसे जुड़े हुए हैं कि उनके बिना जीवन का केवल सुखोपभोग ही नहीं अपितु प्रत्यक्ष में जीवन भी असम्भव हो बैठेगा। उदाहरणार्थ- प्राणि-सृष्टि और वनस्पति-सृष्टि में दिन-रात चल रहा ऑक्सीजन तथा कार्बन डाई ऑक्साइड का लेन-देन, और इस लेनदेन पर निर्भर उन दोनों के जीवन इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। प्रकृति से मिली वस्तुओं में वायु और पानी की आपूर्ति विपुल है। (विविध प्रकार के यंत्रोद्योगों के बेरोकटोक विकास और उनके केन्द्रीयकरण के कारण होने वाले प्रदूषण के परिणामस्वरूप शुद्ध वायु और शुद्ध जल की आपूर्ति भी चिन्ता का विषय बन गया है।) वनस्पति-सृष्टि और मानवेतर प्राणि-सृष्टि में खनिज द्रव्य जैसी वस्तुएँ अपेक्षाकृत सीमित होती हैं। इस सीमित सम्पदा का हम बिना किसी अंकुश के उपयोग करते रहे तो वह हमारे लिए कितने समय तक पर्याप्त रहेगी, सोचने की बात है। साधन-सामग्री के प्रकृतिदत्त भण्डारों को भी अन्ततः कुछ सीमा तो होती ही है, इसे भुलाया नहीं जा सकता। किन्तु प्रकृति से मिलने वाली सम्पदा का उपयोग करते समय, उसका भण्डार कितना कम या अधिक है, और वह कितने समय तक पर्याप्त रहेगा, केवल इसी दृष्टि से सोचने से काम नहीं चलेगा। प्रकृति की भिन्न-भिन्न वस्तुओं में एक प्रकार से परम्परावलम्बन का चक्रीय संबंध (साइक्लिक रिलेशनशिप) होता है, एक संतुलन भी होता है, उसका भी विचार करना होगा। सुखोपभोग के लालच के कारण हम प्रकृति से मिलने वाली साधन-सम्पदा का अनियंत्रित उपयोग करते हुए उसे नष्ट करने लगे तो यह साधन-संतुलन बिगड़ जायेगा और उसके भीषण परिणाम हमें भोगने पड़ेंगे। प्राकृतिक सम्पदा का अविचार से कैसा दुरुपयोग और विनाश किया जाता है, इसके उदाहरण के रूप में इन दिनों हमारे देश में जो अनाप-शनाप जंगल कटाई चल रही है उसकी ओर अंगुलि-निर्देश किया जा सकता है। इस संदर्भ में एक सर्वेक्षण किया गया था। उसके अनुसार भारत में उपलब्ध कुल 33 करोड़ हैक्टेयर भूमि में से लगभग सात करोड़ हैक्टेयर अर्थात् पाँचवें भाग पर जंगल हैं। देश के कुल भूमि-क्षेत्र में एक तिहाई क्षेत्र में जंगल हों और उसमें भी पर्वतों पर 60 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल हों, ऐसी संस्तुति राष्ट्रीय वन-नीति समिति ने सन् 1952 में की थी। किन्तु वन-विभाग की ही सांख्यिक जानकारी के अनुसार प्रतिवर्ष 45 लाख हैक्टेयर भूमि पर से जंगल काटे जा रहे हैं।

Authors and Affiliations

डॉ. कल्याण सिंह मीना
लेवल – 2 अध्यापक, राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय महाराजपुरा, तहसील – बस्सी, जिला – जयपुर , राजस्थान

Publication Details

Published in : Volume 1 | Issue 3 | September-October 2018
Date of Publication : 2018-09-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 97-100
Manuscript Number : SHISRRJ1925019
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डॉ. कल्याण सिंह मीना, "प. दीनदयाल उपाध्याय के समष्टि से परमेष्ठि तक का चिन्तन का प्रभाव ", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 1, Issue 3, pp.97-100, September-October.2018
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ1925019

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