महाकाव्यों में नारी उत्पीडन

Authors(1) :-डाॅ॰ उमा शर्मा

नृ$अञ् ङीन् के योग से निष्पन्न नारी शब्द के अमरकोष में एक श्लोक के माध्यम से निम्नवत् पर्यायवाची उपलब्ध होते हैं यथा - स्त्री योषिदबला योषा नारी सीमन्तिनी वधूः प्रतीपदर्शिनी वामा वनिता महिला तथा।। लोक में धन शक्ति विद्या की अधिष्ठात्री देवता के रूप में जिस प्रकार लक्ष्मी दुर्गा सरस्वती आदि प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार वैदिक देवता भी विविध शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं मारकण्डेय पुराण के अनुसार असुरों के संहारार्थ देवताओं की शक्ति का समुच्चय देहधारिणी देवी के रूप में ही प्रकट होता है किंतु साथ ही यह भी ध्यातव्य है कि रामायण और महाभारत जैसे प्रमुख इतिहास महाकाव्यों में जो महायुद्ध हुए हैं वे नारी के अपमान रूपी उत्पीडन के कारण ही हुए हैं। इनके उत्तरवर्ती ग्रंथ जिनके ये प्रेरणा स्रोत रहे हैं, उनमें भी स्त्री उत्पीडन के यत्र -तत्र उदाहरण दृष्टिगत होते हैं आज भी विश्ववरेण्या भारतीय संस्कृति के विटप को पुष्पित और पल्लवित रखने के लिए नारी सम्मान अपेक्षित है जिससे नारी की स्थिति दृढप्रतिष्ठित हो सके।

Authors and Affiliations

डाॅ॰ उमा शर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर, नानक चन्द ऐंग्लो संस्कृत काॅलेज़, मेरठ,उत्तर प्रदेश।, भारत।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, समुच्चय, उत्पीडन, आचरण ,भयत्रस्ता ,लब्धख्याति, प्रचंडदर्शना, अंगुलिगण्य, उपनिषद्।

  1. हलायुधकोश, पृष्ठ, 388
  2. अमरकोश, पृष्ठ, 203/2
  3. हलायुधकोश, पृष्ठ, 742
  4. एवमुक्तस्तया तत्र वेदवत्या निशाचरः मूर्धजेषु तदा कन्यां कराग्रेण परामृशत्।। श्रीमद्वाल्मीकि-प्रणीत-रामायण, उत्तर काण्ड, 17/27
  5. ततो वेदवती क्रुद्धा केशान् हस्तेन साच्छिनत्    । एवमुक्तवा प्रविष्टा सा ज्वलितं जातवेदसम् वही, 17/28-34
  6. पुनरेव समुद्भूता पद्मे पद्मसमप्रभा     एतच्छुत्वार्णवे राम तां प्रचिक्षेप रावणः।। वही, 17/35-38
  7. सा चैव क्षितिमासाद्य यज्ञायतनमध्यगा। राज्ञो हलमुखोत्कृष्टा पुनरप्युत्थिता सती।।     सीतोत्पन्ना तु सीतेति मानुषैःपुनरुच्यते।। वही, 17/39-44
  8. वामेन सीतां पद्माक्षीं मूर्धजेषु करेण सः। ऊर्वाेस्तु दक्षिणेनैव परिजग्राह पाणिना। ततस्तां परुषैर्बाक्यैरभितज्र्य महास्वनः। अंकेनादाय वैदेहीं रथमारोपयत् तदा।। (अरण्य काण्ड, 49/17-20)
  9. अनयेनाभिसम्पन्नमर्थ हीनमनुव्रते। नाशयाम्यहमद्य त्वां सूर्यः संध्यामिवौजसा।। वा0 रा0, सुन्दर काण्ड, 22/31
  10. स मैथिलीं धर्मपरामवस्थितां प्रवेपमानां परिभत्स्र्य रावणः। विहाय सीतां मदनेन मोहितः, स्वमेव वेश्म प्रविवेश-रावण। वही, 22/46
  11. अन्या तु विकटा नाम लम्बमानपयोधरा। अब्रवीत् कुपिता सीतां मुष्टिमुद्यम्य तर्जती ततश्चण्डोदरी नाम राक्षसी क्रूरदर्शना, भ्रामयन्ती महच्छूलमिदं वचनमब्रीवत्। इमां हरिणशावक्षीं त्रासोत्कम्पपयोधराम् रावणेन हृतां दृष्ट्वा दौर्हृदो मे महानयम्। यकृत प्लीहं महत् क्रोडं हृदयं च सबन्धनम्।। गात्राण्यपितथा शीर्षं श्वादेयमिति मे मतिः।
  12. वही, 24/28-40
  13. ततस्त प्रघसा नाम वाक्यमब्रवीत् विशस्येमां ततःसर्वान् समान् कुरुत पिण्डकान्।।
  14. वही, 24/43, 44
  15. कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः। वही, 25/3
  16. साहं त्यक्ता प्रियेणैव रामेण विदितात्मना। प्राणांस्त्यक्ष्यामि पापस्य रावणस्य गता वशम्।। वही 26/49
  17. न मामसज्जनेनार्या समानयितुमर्हति। धर्माद् विचलितुं नाहमलं चन्द्रादिव प्रभा।। वही- अयोध्या काण्ड, 39/28
  18. तदद्य व्याहृतं भद्रे मयैतत् कृतबुद्धिना, लक्ष्मणे वाथ भरते कुरु बुद्धिं यथासुखम्।। शत्रुघ्ने वाथ सुग्रीवे राक्षसे वा-विभीषणे निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मनः।। न हि त्वां रावणो दृष्ट्वा दिव्यरूपां मनोरमाम् मर्षयेत् चिरं सीते स्वगृहे पर्यवस्थिताम्। वही, युद्धकाण्ड 115/22-24
  19. ततः प्रियार्ह श्रवणा तदप्रियं प्रियादुपश्रुत्य चिरस्य मानिनी। मुमोच बाष्पं रुदती तदा भृशं, गजेन्द्रहस्ताभिहतेव वल्लरी।। वही, 115/25
  20. सा तदाश्रुतपूर्वं हि जने महति मैथिली रूक्षं श्राबयसे वीर प्राकृतः प्राकृतामिव। वही- युद्धकाण्ड, 116/2-5
  21. एवमुक्त्वा तु वैदेही परिक्रम्य हुताशनम्, विवेश ज्वलनं दीप्तं निःशङ्केनान्तरात्मना।। प्रचुक्रुशुः स्त्रियः सर्वास्तां दृष्ट्वा द्रव्यवाहने, पतन्तीं संस्कृतां मन्त्रैर्वसोर्धारामिवाध्वरे तस्यामग्निं विशन्त्यां तु हाहेति विपुलः स्वनः रक्षसां वानराणां च सम्बभूवाद्भुतोपमः।। वही, 29-36
  22. मामिकेयं तनुर्नूनं सृष्टा दुःखाय लक्ष्मण। धात्रा यस्यास्तथा मेऽद्य दुःखमूर्ति
  23. प्रदृश्यते।। उत्तरकाण्ड, 48/3
  24. किं नु पापं कृतं पूर्वं को वा दारैर्वियोजितः। याहं शुद्धसमाचारा त्यक्ता नृपतिना सती।। वही, 28/4
  25. यदि शुद्धसमाचारा यदि वा वीतकल्मषा करोत्विहात्मनः शुद्धिमनुमान्य महामुनिम्।। उत्तरकाण्ड, 95/4
  26. यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये तथा मे माधवी देवि विवरं दातुमर्हति।
  27. वही, 97/14-16
  28. तथा शपन्त्यां वेदेह्यां प्रादुरासीत् तदद्भुतम्     तामासनगतां दृष्ट्वा प्रविशन्तीं रसातलं पुष्पवृष्टिरवच्छिन्ना दिव्या सीतामवाकिरत्।। वही, 97/17-20
  29. एवमुक्त्वा स तां रक्षो निवेश्य च शिलातले कामभोगाभिसंरक्तो मैथुनायोपचक्रमे।। वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, 26/40
  30. धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्।। वही आदिपर्व, 62/53
  31. त्यजेयं विप्रिये च त्वां कृते वासं च ते गृहे। एतद् गृहाण वचनं मया यत् समुदीरितम्।। महाभारत, आदि पर्व, 47/9
  32. ऋषिः कोपसमाविष्टस्त्यक्तकामो भुजङ्गमाम्। न मे वागनृतं प्राह गमिष्येऽहं भुजङ्गमे।। वही, श्लोक-30
  33. इत्युक्त्वा सानवद्याङ्गी प्रत्युवाच मुनिं तदा। जरत्कारुं जरुत्कारुश्चिन्ता शोकरायणा।। वही, 33
  34. तयैवंविधया राजन् पा´्चाल्याहं सुमध्यपा ग्लहं दीव्यामि चार्वङग्या द्रौपद्या हन्त सौबल। एवमुक्ते तु वचने     निःश्वसन्त इवोरगाः।। वही, सभापर्व, 65/39-42
  35. ततो जवेनाभिससार रोषाद् दुःशासनस्तामाभिगर्जमानः दीर्घेषु नीलेष्वथ चोर्मिमत्सु जग्राह केशेषु नरेन्द्रपत्नीम्।। वही, 67/29
  36. ततोऽब्रवीत् तां प्रसभं निगृह्य केशेषु कृष्णेषु तदा स कृष्णाम्। कृष्णं च जिष्णुं च हरिं नरं च त्राणाय विक्रोशति याज्ञसेनी। वही, 33
  37. इमे सभायामुपनीतिशास्त्राः क्रियावन्तः सर्व एवेन्द्रकल्पाः। गुरुस्थाना गुरवश्चैव सर्वे तेषामग्रे नोत्सहे स्थातुमेवम्। वही, 36
  38. नृशंसकमस्त्वमनार्यवृत्त मा मां विवस्त्रां कुरु मा विकर्षीः। न मर्षयेयुस्तव राजपुत्राः सेन्द्राश्च देवा यदि ते सहायाः।। वही, 37
  39. रजस्वला वा भव याज्ञसेनि एकाम्बरा वाप्यथवा विवस्त्रा। द्यूते जिता चासि
  40. कृतासि दासी दासीषु वासश्च यथोपजोषम्।। वही, 34
  41. धिगस्तु नष्टः खलु भारतानां धर्मस्तथा क्षत्रविदां च वृत्तम्। यत्र ह्यतीतां कुरुधर्मवेलां प्रेक्षन्ति सर्वे कुरवः सभायाम्।। वही, 40
  42. द्रोणस्य भीष्मस्य च नास्ति सत्त्वं क्षत्तुस्तथैवास्य महात्मनोऽपि।     सा पाण्डवान् कोपपरीतदेहान् संदीपयामास कटाक्षपातैः।। वही, 41-42
  43. एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहितः कुरुनन्दन।
  44. इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता।
  45. अस्या सभामानयनं न चित्रमिति।
  46. मे मतिः एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता।। वही, 68/35-36
  47. गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव। हे नाथ हे रमानाथ ब्रजनाथार्तिनाशन कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन।। वही, 41, 42
  48. सा तेन च समाधूता दुःखेन च ततपस्विनी। पतिता विललापेदं सभायामतथोचिता।
  49. वही, 69/3
  50. प्रमृह्यमाणा तु महाजवेन मुहुर्विनिःश्वस्य च राजपुत्री। सा कृष्यमाणा रथमारूरोह धौम्यस्य पादावाभिवाद्य कृष्णा।। वही वनपर्व, 268/25
  51. स तार्माभिप्रेक्ष्य विशालनेत्रां जिघृक्षमाणः परिभत्र्सयन्तीम्। जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे स कीचकस्तां सहसाऽऽक्षिपन्तीम्। वही, कीचकवधपर्व, 16/7

Publication Details

Published in : Volume 1 | Issue 4 | November-December 2018
Date of Publication : 2018-11-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 189-195
Manuscript Number : SHISRRJ192687
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डाॅ॰ उमा शर्मा, "महाकाव्यों में नारी उत्पीडन", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 1, Issue 4, pp.189-195, November-December.2018
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ192687

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