श्री वैष्णव सम्प्रदाय में माया का स्वरूप एवं आचार्य शङ्कर के मायावाद का खण्डन

Authors(1) :-भावना शुक्ला

भारतीय चिन्तन परम्परा में दार्शनिक सम्प्रदायों में 'माया' शब्द का अनेकशः उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में माया शब्द का उल्लेख प्राप्त होना इसकी प्राचीनता का द्योतक है।1 शङ्कराचार्य के द्वारा माय के स्वरूप के प्रतिपादन के अनन्तर तो समस्त भारतीय दार्शनिकों ने माया की चर्चा की है। माया शब्द की निष्पत्ति मा माने धातु से हुई है, जिसका अभिप्राय है- नापना अथवा तौलना।2 किन्तु दार्शनिकों ने जिस माया के स्वरूप का प्रतिपादन किया है, उसके अनुसार माया जीवात्मा एवं परमात्मा के मध्य भूमिका निभाने वाली कोई शक्ति है। आचार्य रामानुज माया और प्रकृति को एक ही शक्ति के दो नाम स्वीकार करते है, जबकि आचार्य शङ्कर ने माया तथा अविद्या का प्रयोग एक ही अर्थ में किया है। उनके अनुसार आत्मा तथा ब्रह्म के समान माया तथा अविद्या में भी तादात्म्य है। वह उस माया को ही अविद्या, अध्यास, अध्यारोप, भ्रम, अव्यक्त, विवर्त, मूलप्रकृति आदि शब्दों से अभिहित करते हैं, जबकि आचार्य रामानुज माया को मिथ्या नहीं स्वीकार करते हैं। अपितु उसे ईश्वर की शक्ति के रूप में प्रतिपादित करते हैं।1 यथा - जादूगर किसी औषधि अथवा मन्त्र के माध्यम से मिथ्या वस्तु के विषय में भी लोगों के मध्य 'यह सत्य है' ऐसी बुद्धि उत्पन्न कर देता है।

Authors and Affiliations

भावना शुक्ला
शोधच्छात्रा, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद,भारत ,भारत

  1. 'मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिरः।' ऋग्वेद (1/11/7)
  2. 'विश्वा हि माया अवसि स्वधावो भद्रा ते पूषन्निह रतिरस्तु।।' ऋग्वेद (6/58/1)
  3. 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्त हरयः शता दश।।' ऋग्वेद (6/47/18)
  4. ' दृँहस्व देवि पृथिवि स्वस्तय आसुरी माया स्वधया कृताऽसि।।' यजुर्वेद (11/69)
  5. प. हरेकान्तमिश्र विरचित बृहद्धातुकुसुमाकर, पृ. 364
  6. डा. चन्द्रप्रकाश सिंह विरचित वेद एवं विभिन्न सम्प्रदाय, पृ. 137
  7. अतो माया शब्दो विचित्रार्थसर्गका राभिधायी। प्रकृतेश्च
  8. मायाशब्दाभिधानं विचित्रार्थसर्गकरत्वादेव।– श्रीभाष्य (1/1/1)
  9. परमात्मन्येकीभूतात्यन्तसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरादेकस्मादेवद्वितीयान्निरतिशयानन्दात् सर्वज्ञात् सर्वशक्तेः सत्यसंकल्पाद् ब्रह्मणो नामरूपविभागार्हस्थूलचिदचिद् वस्तुशरीरतया बहुभवनसंकल्पपूर्वको जगदाकारेण परिणामःश्रूयते। श्रीभाष्य (1/4/27)
  10. द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
  11. तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वच्यनश्नन्यो अभिचाकशीति।।
  12. ऋग्वेद – (1/164/20)
  13. मुण्डकोपनिषद् (3/1/1)
  14. रामानुजभाष्य गीता – (4/6)
  15. अस्याः कार्यं भगवत्स्वरूपतिरोधानं स्वस्वरूपभोग्यत्व बुद्धिः च, अतो भगवन्मायया मोहितं सर्वं जगद् भगवन्तम् अनवधिकातिशयानन्दस्वरूपं न अभिजानाति। (रामानुजभाष्य गीता – 7/14)

Publication Details

Published in : Volume 1 | Issue 4 | November-December 2018
Date of Publication : 2018-11-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 67-79
Manuscript Number : SHISRRJ19334
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

भावना शुक्ला, "श्री वैष्णव सम्प्रदाय में माया का स्वरूप एवं आचार्य शङ्कर के मायावाद का खण्डन", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 1, Issue 4, pp.67-79, November-December.2018
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ19334

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