Manuscript Number : SHISRRJ19334
श्री वैष्णव सम्प्रदाय में माया का स्वरूप एवं आचार्य शङ्कर के मायावाद का खण्डन
Authors(1) :-भावना शुक्ला भारतीय चिन्तन परम्परा में दार्शनिक सम्प्रदायों में 'माया' शब्द का अनेकशः उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों में माया शब्द का उल्लेख प्राप्त होना इसकी प्राचीनता का द्योतक है।1 शङ्कराचार्य के द्वारा माय के स्वरूप के प्रतिपादन के अनन्तर तो समस्त भारतीय दार्शनिकों ने माया की चर्चा की है। माया शब्द की निष्पत्ति मा माने धातु से हुई है, जिसका अभिप्राय है- नापना अथवा तौलना।2 किन्तु दार्शनिकों ने जिस माया के स्वरूप का प्रतिपादन किया है, उसके अनुसार माया जीवात्मा एवं परमात्मा के मध्य भूमिका निभाने वाली कोई शक्ति है। आचार्य रामानुज माया और प्रकृति को एक ही शक्ति के दो नाम स्वीकार करते है, जबकि आचार्य शङ्कर ने माया तथा अविद्या का प्रयोग एक ही अर्थ में किया है। उनके अनुसार आत्मा तथा ब्रह्म के समान माया तथा अविद्या में भी तादात्म्य है। वह उस माया को ही अविद्या, अध्यास, अध्यारोप, भ्रम, अव्यक्त, विवर्त, मूलप्रकृति आदि शब्दों से अभिहित करते हैं, जबकि आचार्य रामानुज माया को मिथ्या नहीं स्वीकार करते हैं। अपितु उसे ईश्वर की शक्ति के रूप में प्रतिपादित करते हैं।1 यथा - जादूगर किसी औषधि अथवा मन्त्र के माध्यम से मिथ्या वस्तु के विषय में भी लोगों के मध्य 'यह सत्य है' ऐसी बुद्धि उत्पन्न कर देता है।
भावना शुक्ला Publication Details Published in : Volume 1 | Issue 4 | November-December 2018 Article Preview
शोधच्छात्रा, संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद,भारत ,भारत
Date of Publication : 2018-11-30
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Page(s) : 67-79
Manuscript Number : SHISRRJ19334
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ19334