Manuscript Number : SHISRRJ21427
रीतिकालीन आचार्य कुलपति का श्रृंगारेतर (रस निरूपण) काव्य
Authors(1) :-डाॅ. गुंजन त्रिपाठी ‘रीति’ का अर्थ प्रणाली, पद्धति या शैली होता है। संस्कृत में रीति का अर्थ ‘विशिष्ट पद रचना’ है परंतु हिंदी में उक्त काल के संदर्भ में इसका प्रयोग शाóीय ग्रंथों अर्थात् लक्षण ग्रंथों के अनुकरण पर काव्य रचना करने के अर्थ में हुआ है! इस प्रकार रीतिकाव्य वह काव्य है जो लक्षण के आधार पर या उसे ध्यान में रखकर लिखा गया है। इसी प्रकार की रचनाओं की अधिकता या प्रभाव के कारण इस काल को रीतिकाल कहा गया। रीतिकाव्य के भीतर प्रायः श्रृंगार के विभिन्न पक्षों को लेकर काव्य रचना हुई। इसके अतिरिक्त वीर, नीति और भक्ति मूलक रचनाएं भी परम्पराबद्ध रूप में रीति कवियों ने प्रस्तुत की है। कुलपति के श्रृंगारेतर काव्य में प्रशस्तिमूलक, अनूदित और भक्ति भावित वीर काव्य पद्धति के प्रभाव रूप में शिवाजी, रामसिंह-प्रशंसा, द्रोणपर्व तथा दुर्गा सम्बन्धिनी रचनाएँ देखी जा सकती हैं। भक्ति भावित रचनाएँ और नीतिमूलक सूक्तियाँ-ध्यान लीला, रसरहस्य’ और ‘युक्ति-तरंगिणी’ में उपलब्ध हो जाती हैं। तांत्रिक प्रभाव ‘दुर्गाभक्ति-चन्द्रिका’ के दस-महाविद्या प्रकरण में समाहित है। श्रृंगारेतर रसों का वर्णन ‘रसरहस्य’ और ‘युक्ति-तरंगिणी’ में हुआ है। प्रस्तुत शोधपत्र में रीतिकालीन आचार्य कुलपति के श्रृंगारेतर रस निरूपण काव्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
डाॅ. गुंजन त्रिपाठी प्रशस्तिमूलक, रीतिकाव्य, नीतिमूलक, सामासिकता आलम्बन, अनूदित एवं आक्षिप्त आदि। Publication Details Published in : Volume 4 | Issue 2 | March-April 2021 Article Preview
1N/5C, तिलक नगर, अल्लापुर, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश, भारत
Date of Publication : 2021-03-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 19-25
Manuscript Number : SHISRRJ21427
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ21427