मोक्ष का स्वरूप एवं जैन-दर्शन में उसकी मूल प्रवृत्तियाँ

Authors(1) :-डाॅ॰ उमा शर्मा

दर्शन शब्द प्रेक्षण अर्थ वाली दृश् धातु से ल्युट् प्रत्यय के योग से निष्पन्न होता है जैन दर्शन जैन धर्म के विचार पक्ष का ही एक रूप है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है तथा जीव के समस्त कर्मों का क्षय हो जाना ही मोक्ष है। वस्तुतः कर्म रहित शुद्धावस्था को ही मोक्ष एवं निर्वाण कहा गया है। मोक्ष की प्राप्ति रत्नत्रय के सम्मिलित सहयोग से सम्भव है।

Authors and Affiliations

डाॅ॰ उमा शर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर, मनानक चन्द ऐंग्लो संस्कृत काॅलेज़, मेरठ, उत्तर प्रदेश।,भारत

मोक्ष, जैन, दर्शन, धर्म, निर्वाण, कर्म, आत्मा।

  1. संस्कृत-हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे। भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास पृ॰ १। मनुस्मृति- 2/11 कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः, तत्त्वार्थसूत्र 10/2-3। बन्ध हेतोरभावाद्धि निर्जरातश्च कर्मणाम् कात्स्न्र्येन विप्रयोगस्तु मोक्षो  निर्गन्थरूपिणः। हरिवंशपुराण- 58/208 जीवोऽयं यां पराधीनः सहते दुःखसंहतिम्।
  2. तामेतामात्मतन्त्रश्चेत् किं न मुच्येत् बन्धनात्।। पाण्डवचरितम् - 16/256 सांख्य एवं जैनदर्शन की तत्त्वमीमांसा तथा आचारदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन। डॉ० रामकिशोर शर्मा, पृ० 107। तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र 1/2-3। हरिवंशपुराण, 58/80-83। ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्। पात´्जल योगदर्शन; कैवल्यपाद-32 क्षणप्रतियोगी परिणामापरानिग्र्राह्य क्रमः। पात´्जलयोगदर्शन, कैवल्यपाद-33 पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं। रूप प्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।। वही, 34 धर्मविशुद्धमुपदिश्य ततः सदैव, मत्र्यासुरे सदसि योगजुषो मुहूर्तम्।
  3. पाण्डोः सुत्ताः क्षणमयोगि गुणास्पदे ते विश्रम्य मुक्तिपद्मक्षयसौख्यमीयुः।। पा०च०, 18/272।
  4. दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः।। तत्त्वार्थभाष्यकारिका-8 आत्मलाभ विदुर्माेक्षं जीवस्यान्तरमलक्षयात्।
  5. नाभावो, वाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम्।। सिद्धिविनिश्चय-पृ॰ 384 यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद् धाम परमं मम। श्रीमदभगवद््गीता, 8/21 पूर्वप्रयोगादसंगत्वात् वधच्छेदात् तथा गतिपरिणमाच्च तद्गतिः। तत्त्वार्थसूत्र-10/5/6  जैनतत्त्वकलिका, पृ॰ 198 सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्र्याणि मोक्षमार्गः। तत्त्वार्थसूत्र- 1/1 सुतत्थं जिणभणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं।
  6. हेयाहेयं च तहा जो जाणई, सोहु सुहिट्ठी । सूत्रप्राभृत गा० 5 तत्त्वार्थाधिगम सूत्र 1/2/3 स्वानुभूति सनाथाश्चेत्, सन्ति श्रद्धादयो गुणाः।
  7. बिना स्वानुभूतिं तु या श्रद्धा श्रुतमश्नतः।। पंचाध्यायी, 15/421 विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थिति वृद्धि फलोदयः। न सन्त्यिसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरपि।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 32/1 स्वार्थसिद्धि-11 अन्यूनमनतिरिक्तं यथातथ्यं बिना च विपरीतात्।
  8. निःसंदेह वेद यंदाहुस्तज्ञानमागंमिनः।। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 42 संशय विमोह विव्भभविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स।
  9. गहणं सम्भं पाणं सायारमणेयमेयं तु।। द्रव्यसंग्रह, गाथा-42। आपरूप का जानपनैः सो सम्याग्ज्ञान कला है। छहडाला-3/2 इन्द्रियानिन्द्रियोत्थंस्यान्मतिज्ञानमनेकथा।
  10. परोक्षमर्थं सान्निध्ये प्रत्यक्षं व्यावहारिकम्।। हरिवंशपुराण, 10/145 तस्माछास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
  11. ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।। श्रीमद्भगवद्गीता, 16/24। हीरालाल जैन- भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ॰ 245-246 तत्त्वार्थसूत्र-1/1

Publication Details

Published in : Volume 4 | Issue 3 | May-June 2021
Date of Publication : 2021-06-10
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 103-108
Manuscript Number : SHISRRJ214321
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डाॅ॰ उमा शर्मा , "मोक्ष का स्वरूप एवं जैन-दर्शन में उसकी मूल प्रवृत्तियाँ ", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 4, Issue 3, pp.103-108, May-June.2021
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ214321

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