विश्व की प्राचीनतम भाषा के रूप में प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विद्वान् संस्कृत के प्रति नतमस्तक कैसे है

Authors(1) :-कैलाश चन्द्र बुनकर

महाकाव्य सर्जन सम्बन्धी मानदण्डों के समालोचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि महाकाव्य विद्या साहित्य का एक विशिष्ट सृजित स्वरूप है जिसके सृजन की प्रवृत्ति एक दीर्घकालीन परम्परा के रूप में विद्यमान रही है। महाकाव्यों की सर्जनपरम्परा में प्राय: सर्जनकर्त्ताओं की प्रवृत्ति, पात्र, घटना, परिस्थिति एवं स्वानुभवमूलक अभिप्रायों को सरलतापूर्वक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की रही है। इसके कारण परम्परागत महाकाव्यों का प्रभाव पर्याप्त रूप मे 'समृद्धि को प्राप्त करता रहा है। वर्तमान में लोकभावना में हो रहे सामाजिक परिवर्तन के कारण महाकाव्यों के प्रति सामान्य जनमानस का रुझान न्यूनता की ओर बढ़ रहा है, अतः महाकाव्य के सर्जन में भी शिथिलता का समावेश दिखाई देता है । उसे वर्तमान युग के चिन्तनीय विषय के रूप में देखा जाना मेरी दृष्टि में सर्वाधिक उचित होगा ।

Authors and Affiliations

कैलाश चन्द्र बुनकर
प्राचार्य, राजकीय लक्ष्मीनाथ शास्त्री संस्कृत, महाविद्यालय,चीथवाड़ी, जयपुर।

विश्व, प्राचीनतम, भाषा, प्राच्य, पाश्चात्य, संस्कृत, नतमस्तक।

  1. देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति (अथर्ववेद)
  2. उतः त्व पश्यन् (ऋ. 10/71/4), प्र पर्वतानां (ऋ. 3 / 33 / 1), द्वा सुपर्णा (ऋ.1/124/7) इत्यादि ।
  3. ऋग्वेद (10/177/2)
  4. वाक्यपदीय 1 / 12
  5. पाणिनीय शिक्षा-6
  6. वाक्यपदीय 1/84
  7. साहित्यदर्पण 3/3
  8. अथर्ववेद
  9. अथर्ववेद 15/6/11
  10. ऋग्वेद (8/32 / 1),
  11. ऋग्वेद (1/4/34, 8/2/38 )
  12. संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास (डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी) पृ. 48
  13. ऋग्वेद (2/34/6, 9/6/42, 10/64/3)

Publication Details

Published in : Volume 1 | Issue 2 | July-August 2018
Date of Publication : 2018-08-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 173-197
Manuscript Number : SHISRRJ221216
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

कैलाश चन्द्र बुनकर, "विश्व की प्राचीनतम भाषा के रूप में प्राच्य एवं पाश्चात्य सभी विद्वान् संस्कृत के प्रति नतमस्तक कैसे है ", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 1, Issue 2, pp.173-197, July-August.2018
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ221216

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