Manuscript Number : SHISRRJ225462
मीमांसादर्शन में प्रयुक्त लौकिक न्यायों का विवेचन
Authors(1) :-डाॅ. अंशुल दुबे लौकिक न्याय व्याख्यान की वह प्रक्रिया है जिसमें वस्तुतः ‘सागर को बूंद’ में समाहित करने की अपूर्व शक्ति और सामथ्र्य है। लौकिक न्याय अत्यन्त प्राचीन है। वेद, उपनिषद्, व्याकरण, न्याय एवं मीमांसा ग्रन्थों से लेकर लौकिक संस्कृत साहित्य तक इसकी प्रभा छिटकी हुई है। मीमांसा दर्शन के गूढ़ विषयों को समझने के लिए आचार्याे ने स्व-स्व ग्रन्थों में बहुशः लौकिक न्यायों का अवलम्बन किया है। जहाँ तक अभिव्यक्ति का प्रश्न है, लौकिक न्यायों के प्रयोग से इसमें एक विशिष्ट प्रकार का आकर्षण आ जाता है तथा न्यायों में सन्दर्भित आधार के कारण अभिव्यक्ति अपनी प्राचीन परम्परा से जुड़ जाती है, उसमें भारतीय धरती की सोंध भर जाती है और शैली भी इनके प्रयोग से सूक्त्यात्मक एवं सघन हो जाती है। मीमांसा दर्शन के सिद्धान्तों के विशिष्ट व्याख्यान क्रम में अन्यान्य ग्रन्थों में आए प्रमुख लौकिक न्यायों का विवेचन करना हमारे शोध-पत्र का वण्र्य विषय है।
डाॅ. अंशुल दुबे लौकिक, मन्दविष न्याय, शंखन्याय, तद्व्यपदेश न्याय, ग्रहैकत्व न्याय, सूक्त्यात्मक। Publication Details Published in : Volume 5 | Issue 3 | May-June 2022 Article Preview
असिस्टेंट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, तिलक महाविद्यालय, औरैया, उत्तर प्रदेश, भारत।
Date of Publication : 2022-06-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 101-105
Manuscript Number : SHISRRJ225462
Publisher : Shauryam Research Institute
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