Manuscript Number : SHISRRJ120322
उत्तराखंड के लोकगीतों में जीवन का राग-रंग
Authors(1) :-मोनिका पन्त भारतीय संस्कृति की आत्मा लोक जीवन में निहित है । हमारा देश विविधताओं से भरा हुआ है यहाँ विभिन्न धर्म, जाति, संस्कृति, कलाओं की अपनी विशेष पहचान है । हर राज्य अपनी एक विशेष व महत्वपूर्ण संस्कृति के साथ विध्यमान है । भारत में लोक का विशेष महत्व है । लोक का सामान्य अर्थ ‘जन’ एवं ‘स्थान’ से है । शब्द की दृष्टि से ‘लोक’ का विवेचन करें तो यह संस्कृत की ‘लोक’ धातु से निष्पन्न होता है । जिसका अर्थ है - ‘देखना’ । अंग्रेजी शब्द ‘फोक’ (Flok)और जर्मन शब्द वोक (Volk) का यह पर्याय है । इन भाषाओं में भी ‘लोक’ शब्द का अर्थ देखने से ही है । लोक का अर्थ जब देखने से लिया जाता है तो यह ‘देखना’ एक प्रकार से जिज्ञासा के लिए देखना नहीं है वरन् देखने में अपनत्व का भाव है । ‘अपना’ मानकर,‘अपनेपन’ के भाव के साथ देखना एक प्रकार से मन की भाषा है और उसका अर्थ ही है, ‘लोक’। ‘लोक’ शब्द के संदर्भ में बच्चन सिंह कहते हैं कि “लोक एक भौगोलिक शब्द है । इसे लेकर विविध लोक की कल्पना की गयी है । ऋग्वेद में (3/53/21) लोक जीवन एवं जगत के रूप में प्रयुक्त हुआ है । इससे इतर वेदों में दिव्य और पार्थिव लोक की कल्पना की गयी है । उपनिषदों में दो लोक माने गए हैं - इहलोक और परलोक । निरुक्ति में तीन लोक का उल्लेख मिलता है - पृथ्वी अंतरिक्ष और द्युलोक । दूसरे शब्दों में इन्हें भू:,भुव:,और स्व: कहते हैं । पौराणिक कालों में सात लोक एवं सात पातालों का उल्लेख मिलता है । चूंकि अब परलोक की कल्पना, कल्पना मात्र रह गयी है, अत: लोक ‘इहलोक’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है । लोक धर्म कहने से लोक का अर्थ जनसामान्य हो जाता है ।” हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘लोक’ को कई आयामों में देखते हैं । उनके लिए यह अधिकांश जन की आस्था, अस्मिता, और आकांक्षा को सींचने वाली ऊर्जा हैं । ‘काव्य में लोक-मंगल की साधनावस्था’ निबंध के अंतर्गत शुक्ल जी काव्य में लोक की प्रतिष्ठा करते हैं । नामवर सिंह लोकजीवन को ऐसी शक्ति मानते हैं जो सामाजिक गतिरोध को तोड़ने के साथ ही साहित्यिक गतिरोध को भी समाप्त करती है । लोकजीवन से सम्बन्धित अनेक संस्कृतियों,परम्पराओं,अनुभूतियों,भावनाओं आदि मानवीय व प्राकृतिक स्वरूप को लोकसाहित्य ने विस्तार दिया है जिनमें लोकगीत-संगीत,लोकनृत्य,लोकवादन,लोककथाओं-गाथाओं आदि अधिकांश मौलिक कलाओं ने अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिती दर्ज की है । उत्तराखंड का लोकजीवन भी इन समस्त कलाओं से परिपूर्ण अपनी एक विशेष पहचान रखता है । यहाँ मुख्यतः उत्तराखंड के लोकगीतों पर बात की जाएगी ।
मोनिका पन्त [1] व्यास,डॉ.अरुणा.(2016).लोक संस्कृति,समाज एवं परिस्थितिकी संतुलन.जयपुर : राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी.पृ. सं. 29 [2] सिंह,बच्चन.(2010).आधुनिक आलोचना के बीज शब्द. दिल्ली:वाणी प्रकाशन. पृ. सं. 98 [3] यादव,गोविंद.लोकबिंब,(लोककला,साहित्य और संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका).जुलाई-सितंबर-2017 अंक. नई दिल्ली. पृ.सं 69 [4] जोशी,डॉ. कृष्णा नन्द. कुमाऊँ का लोक साहित्य. बरेली: प्रकाश बुक डिपो. पृ. सं. 9 [5] पोखरिया, देवसिंह. (2009). उत्तराखंड लोक संस्कृति और साहित्य. नई दिल्ली. राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत. पृ. सं.343 [6] वही, पृ. सं. 345 [7] जोशी,डॉ. कृष्णा नन्द. कुमाऊँ का लोक साहित्य. बरेली: प्रकाश बुक डिपो. पृ. सं. 11 [8] पोखरिया, देवसिंह.(2009). उत्तराखंड लोक संस्कृति और साहित्य. पृ. सं. 345 [9] बिष्ट,शेरसिंह. (2014). कुमाउनी. नई दिल्ली : साहित्य अकादमी. पृ. सं. 151 [10] वही,पृ. सं. 152 [11] पोखरिया, देवसिंह. (2009).उत्तराखंड लोक संस्कृति और साहित्य. नई दिल्ली. राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत.पृ. सं.329 [12] बिष्ट,शेरसिंह. (2014). कुमाउनी. नई दिल्ली : साहित्य अकादमी. पृ. सं.160 [13] पोखरिया, देवसिंह. (2009). उत्तराखंड लोक संस्कृति और साहित्य. नई दिल्ली. राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत. पृ. सं.235 [14] रुवाली,केशवदत्त. (2015). गढ़वाली. नई दिल्ली : साहित्य अकादमी. पृ. सं. 147 Publication Details Published in : Volume 3 | Issue 3 | May-June 2020 Article Preview
पीएच.डी. शोधार्थी साहित्य, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविध्यालय वर्धा, महाराष्ट्र, भारत
Date of Publication : 2020-06-30
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Page(s) : 27-33
Manuscript Number : SHISRRJ120322
Publisher : Shauryam Research Institute
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