संस्कृत नाटकों में शिक्षा-व्यवस्था

Authors(2) :-डॉ. गटुलाल पाटीदार, पुष्पेन्द्र कुमार सेवक

भारतीय मनीषियों ने मानव के भौतिक तथा आध्यात्मिक विकास हेतु शिक्षा को महŸवपूर्ण माना है। शिक्षा शब्द शिक्ष्-धातु ध´् प्रत्यय से बना है। शिक्षा का अर्थ है व्यक्ति का अनुशासित एवं सम्यक् विकास जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी तथा अपने समाज की उन्नति कर सके। शिक्षा वेद के छः अंगों में से एक अंग है। ‘‘शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य‘‘ शिक्षा को वेद का नाक कहा गया है। आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य आश्रम का प्रधान उद्देश्य ही विद्या की प्राप्ति करना है। शिक्षा द्वारा ही व्यक्ति अनुशासित होकर विविध ऋणों से मुक्ति हेतु प्रयत्न करता है। शिक्षित व्यक्ति अपने इहलोक को सुधारता है साथ ही पारलौकिक सुख प्राप्ति हेतु भी शुभ कर्मों में प्रवृŸा होता है। इसके द्वारा मानव ईश्वर$जीव$प्रकृति के रहस्य को जानता है। धर्म$अर्थ$काम$मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति भी शिक्षा द्वारा ही सम्भव होती हैं। वह माता-पिता, आचार्य अतिथि की सेवा करता है तथा प्राणी मात्र के कल्याण हेतु सतत् प्रयत्नशील रहता है। शिक्षा द्वारा ही व्यक्ति का सर्वाङ्गीण विकास होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञान को सर्वाधिक पवित्र बताया गया है। न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।। शिक्षा के लिए हमारे प्राचीन ग्रन्थ कहते आये हैं-‘‘प्रथमे निर्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितम् धनम्। तृतीये न तपस्तप्तम्, चतुर्थे किम् करिष्यति।।‘‘ अर्थात् प्रथम अवस्था में यदि विद्या अर्जित न हो, द्वितीय में यदि धन अर्जित न हो, तृतीय में यदि पुण्य अर्जित न हो और चैथी अवस्था में अर्थात् वृद्धावस्था में मनुष्य तब क्या ही कर पायेगा।‘‘ यहाँ पर संस्कृत के प्रमुख रूपकों में शिक्षा के अधिकार, तात्कालिक शिक्षा व्यवस्था, स्त्री-पुरुष शिक्षण, स्वास्थ्य शिक्षण, अनिवार्य एवं निःशुल्क प्रारम्भिक शिक्षण, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक शिक्षण एवं नारी शिक्षा पर परिशीलन किया जा रहा हैं।

Authors and Affiliations

डॉ. गटुलाल पाटीदार
सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.), भारत
पुष्पेन्द्र कुमार सेवक
संस्कृत विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय,मोहनलाल सुखाड़िया, उदयपुर (राज.), भारत

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  1. श्रीमद्भगवद्गीता - 4/38
  2. चित्रलेखा - सखि ! विस्रब्धा भव। ननु भगवता देवगुरुणा अपराजितां नाम
  3. शिखाबन्धिनीं विद्यामुपदिशता त्रिदश प्रति पक्षस्यालङ्घनीयेकृतेः स्व।। विक्रमोर्वशीयम्, 2/9 का (गद्य)
  4. अयं स कालः क्रमलब्धशोभनो, गुणप्रकर्षो दिवसोऽयमागतः।
  5. निरर्थमस्त्रं च मया हि शिक्षितं, पुनश्च मातुर्ववचनेन वारितः।। कर्णभारम्, 1/8
  6. वैखानस - राजन् ! समिदाहरणाय प्रस्थितावयम्। अभिज्ञानशाकुन्तल, 1/12 का (गद्य)
  7. राजा - अये! एतास्तपस्वि- एवाभिवर्Ÿान्ते। वही, 1/17 का (गद्य)
  8. शक्रापनीतकवचोऽर्धरथः प्रमादी, व्याजोपलब्धविफलास्त्रबलो घृणावान्।
  9. कर्णोऽर्जुनस्य किल यास्यति तुल्यभावं यद्यस्त्रदानगुरवो दहनेन्द्ररूद्राः।। दूतघटोत्कच, 1/23
  10. रावण - (आत्मगतम्) यावद्हमपि- श्राद्धकल्पंच। प्रतिमानाटकम् 5/8 का (गद्य)
  11. ब्रह्मचारी- भोः। श्रूयताम ! - वानस्मि। स्वप्नवासवदŸाम्, 1/12 का (गद्य)
  12. गुणानां वा विशालानां सत्काराणां च नित्यशः।
  13. कर्Ÿाारः सुलभा लोके विज्ञातारस्तु दुर्लभाः।। स्वप्नवासवदŸाम्, 5/10
  14. महासेनस्य दुहिता शिष्या देवी च मे प्रिया।
  15. कथं सा न मया शक्या स्मर्तुं देहान्तरेधपि।। वही, 6/11
  16. त्रातुं लोकानिव परिणतः कायवानस्त्रवेदः
  17. क्षात्रो धर्मः श्रित इव तनुं ब्रह्मकोषस्यगुप्त्यै।
  18. सामथ्र्यानाभिव समुदयः संचयो वा गुणाना,
  19. माविर्भूय स्थित इव जगत्पुण्यनिर्माणराशिः।। उŸाररामचरितम्, 6/9
  20. शुश्रूषस्व गुरुन् कुरू प्रियसखीवृŸिां सपत्नीजने
  21. भर्Ÿाुर्विपकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः।
  22. भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोगेष्वनुत्सेकिनी
  23. यान्त्येवं गृहिणी पदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः।। अभिज्ञानशाकुन्तलम्, 4/20
  24. विदूषक - जाने तत्रभवती हंसवती वर्णपरिचयं करोतीति। वही, 5/7 का (गद्य)
  25. प्रथमा-कतिचिदिवसानि - अर्पयितुम्। वही, 6/3 का (गद्य)
  26. कुमुदिनी सखि ईदृशेन - कथं भत्र्रा दृष्टा। मालविकाग्निमित्रम्, 1/3 का (ग?)
  27. छेदो दंशस्य दाहो वा क्षतेर्वा रक्तमोक्षणम्।
  28. एतानि दष्ट मात्राणामायुष्याः प्रतिपŸायः।। वही, 4/4
  29. जीमूतस्तनितविशङ्भििर्मयूरै रुद् ग्रीवरनुरसितस्य पुष्करस्य।
  30. निहर््ादिन्युपहितमध्यमस्वरोत्था मायूरी मदयति मार्जना मनांसि।। वही, 2/21
  31. कदा मुखं वरतनु कारणाद्दते तवागतं क्षणमपि कोपपात्रताम्।
  32. अपर्वणि ग्रहकलुषेन्दुमण्डला विभावरी कथय कथं भविष्यति।। वही, 4/16
  33. लब्धास्पदोऽस्मीति विवाद भीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम्।
  34. यस्यागमः केवल जीविकायै तं ज्ञानंपण्यं वणिजं वदन्ति।। मालविकाग्निमित्रम्, 1/17
  35. उपदेशं विदुः शुद्धं सन्तस्तमुपदेशिनः।
  36. श्यामायते न युष्मासु यः कांचनविभाग्निषु।। वही, 2/9
  37. विदूषक - भवति। त्वरयस्वास्य- भवतु। विक्रमोर्वशीयम्, 2/19 का (गद्य)
  38. नटी। अद्य मया- प्रेषयितुम्। प्रतिज्ञायौगन्धरायण, 1/1 का (गद्य)
  39. कुरङ्गी मम् निर्वेद - आसितम्। अविमारकम्, पृ. सं. 122, पंचमोङ्ग। प्रथम (गद्य)
  40. रोगादकालागुरुचन्दनाद्र्रा
  41. विमुक्तभूषागत हावभावा।
  42. विभातिनिव्र्याजमनोहराङ्गी
  43. वेदश्रुतिर्हेतुविवर्जितेव।। वही, 5/1
  44. जयतु भर्तुदारिका - लिम्प किल। अविमारक, 5/2 का (गद्य)
  45. शय्या नावनता तथास्तृतसमा न व्याकुलप्रच्छदा,
  46. न क्लिष्टं हि शिरोपधानममलं शीर्षाभिधातौषधैः
  47. रोगे दृष्टिविलोभनं जनयितुं शोभा न काचित् कृता,
  48. प्राणी प्राप्य रूजा पुनर्न शयनं शीघ्रं स्वयं मुंचति।। स्वप्नवासवदŸाम्, 5/4
  49. षडधिकदशनाडीचक्रमध्यस्थितात्मा
  50. ह्दि विनिहितरूपः सिद्धिदस्तद्विदां यः।
  51. अविचलितमनोभिः साधकैर्मृग्यमाणः
  52. स जयति परिणद्धः शक्तिभिः शक्तिनाथः।। मालतीमाधवम्, 5/1
  53. कण्ठे श्रीपुरुषोŸामस्य समरे दृष्ट्वा मणि शत्रुभि-
  54. र्नष्टं मन्त्रबलाद्वसन्ति वसुधामूले भुजङ्गा हताः।
  55. पूर्वं लक्ष्मणवीरवानरभटा ये मेघनादाहताः
  56. पीत्वा तेऽपि महौषधेर्गुणनिधेर्गन्धं पुनर्जीविताः।। रत्नावली, 2/5
  57. प्रतिहारी - (परिक्रम्यावलोक्य च) आर्य - सज्जा भवतेति। प्रतिमानाटकम्, 1/4 का (गद्य)
  58. ‘‘इतराः तिस्त्रः विद्याः‘‘ - उŸाररामचरितम्, 2/3 का (गद्य)
  59. वितरति गुरुः प्राज्ञे विद्यां यथैव तथा जड़े,
  60. न तु खलु तयोज्र्ञाने शक्तिं करोत्यपहन्ति वा।
  61. भवति हि पुनर्भूयान् भेदः फलं प्रति तद्यथा,
  62. प्रभवति शुचिबिम्बग्राहे मर्णिर्न मृदादयः।। उŸाररामचरितम्, 2/4
  63. वीर्योत्कर्षैर्यदमृतभुजांनिर्ममे पद्मयोनि-
  64. स्तस्यद्वैधं व्यधित धनुषः शांभवीयस्य रामः।
  65. दिव्यामस्त्रोपनिषदमृषेर्यः कृशाश्वस्य शिष्या-
  66. द्विश्वामित्राद्विजयजननीमप्रमेयः प्रेपेद।। महावीरचरितम्, 2/2
  67. धर्मे ब्रह्मणि कार्मुके च भगवानीशो हि मे शासित
  68. सर्वक्षत्त्रनिबर्हणस्य विनयं कुर्युः कथं क्षत्रियाः।
  69. संबन्धस्तु वसिष्ठमिश्रविषये मान्यो जरायां न तु
  70. स्पर्धायामधिकः समश्च तपसा ज्ञानेन चान्योऽस्ति कः।। वही, 3/37
  71. यदैव नो विधा परिग्रहाय- सुविहितम्।। मालतीमाधवम्, 1/13 का (गद्य)
  72. तापसी-एष गृहीतविघ-ममाश्रमधर्मः।। विक्रर्मोर्वशीयम्, 5/12 का (गद्य)
  73. ‘‘शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखी वृŸिा सपत्निजने।।‘‘ अभिज्ञानशाकून्तलम्, 4/20
  74. उर्वशी‘-चिरस्य आर्या- अवितृष्णाऽस्मि। विक्रमोर्वशीयम्, 5/12 का (गद्य)
  75. जनक-जामदग्न्य संवाद- वही, पृ. सं. 264 (गद्य)
  76. राज्याश्रमनिवासेऽपि प्राप्तकष्टमुनिव्रतः।
  77. वाल्मीकिगौरवादार्य इत एवाभिवर्तते।। उŸाररामचरित, 7/1
  78. त्रय्यास्त्राता यस्तवायं तनूजस्तेनाद्यैवस्वामिनस्ते प्रसादात्।
  79. राजन्वन्तो रामभद्रेण राज्ञा लोकाः सर्वे पूर्णकामाश्च सन्तु।। महावीरचरितम्, 4/44
  80. पुराकल्पे दूरोत्पतनखुरलीकेलिजनिता-
  81. दति प्रत्यासङ्गात्परितपति गात्राणि तपने।
  82. अवष्टभ्यासौ मामुपरि ततपक्षः शिशुरिति
  83. स्वपक्षाभ्यां प्लोषादविकलमरक्षत्करुणया।। वही, 5/5
  84. नट-तावöमिकास्तथैव - लोकितायाः।। मालतीमाधव, 1/10 का (गद्य)
  85. न खलु मुदित - तपोवनस्य। नागानन्दनम्, 1/11 का (गद्य)
  86. मधुरमिव वदन्ति स्वागतं भृङ्ग शब्दै
  87. र्नतिमिव फलनम्रैः कुर्वतेऽमी शिरोभिः।
  88. मम ददत इवाघ्र्यं पुष्पवृष्टीः किरन्तः।
  89. कथमतिथिसपय्र्यां शिक्षिताः शाखिनोऽपि।। वही, 1/12
  90. ऋग्वेदं सामवेदं गणितमथ कलां वैशिकी हस्तिशिक्षां
  91. ज्ञात्वा शर्वप्रासादाद् व्यपगत तिमिरे चक्षुषी चोपलभ्य।
  92. राजानं वीक्ष्य पुत्रं परमसमुदयेनाश्वमेधेन चेष्ट्वा
  93. लब्ध्वा चायुः शताब्दं दर्शादेनसहितं शूद्रकोऽग्नि प्रविष्टः।। मृच्छकटिकम्, 1/4
  94. परस्पर विरोधिन्योरेकसंश्रय दुर्लभम्।
  95. संगतं श्री सरस्वत्योर्भूतयेऽस्तु सदा सताम्।। विक्रमोर्वशीयम्, 5/24
  96. सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वे भद्राणि पश्यतु।
  97. सर्वः कामानवाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु।। वही, 5/25
  98. अक्षयोस्तु गोब्राह्मण - प्रसन्नोऽस्मि, 1/13 का (गद्य)
  99. अद्याभिमन्युनिधनाज्जनितप्रकोपः
  100. सामर्षकृष्णधृतरश्मि गुण प्रतोदः।
  101. पार्थंः करिष्यति तदुग्रधनुः सहायः
  102. शान्ति गमिष्यति विनाशभवाप्य लोकः।। दुतघटोत्कचम् 1/5
  103. सर्वत्र सम्पदः सन्तु नश्यन्तु विपदः सदा।
  104. राजा राजगुणोंपेतो भूमिमेकः प्रशास्तु नः।। कर्णभारम्, 1/25
  105. धीरस्याश्रमसंश्रितस्य वसतस्तुष्टस्य वन्यै फलै
  106. र्मानार्हस्य जनस्य वल्कलवत स्त्रासः समुत्पाद्यते
  107. उत्सिक्तो विनयादपेतपुरुषो भाग्यैश्चलैर्विस्मतः
  108. कोऽयं भो ! निभृतं तपोवनमिदं ग्रामीकरोत्याज्ञया ।। स्वप्नवासवदŸाम्, 1/3
  109. तदस्मिन ब्रह्माद्यैस्त्रि दशगुरुभिर्नाथितशमे
  110. तपस्तेजोधाम्नि स्वयमुपनतब्रह्माणि गुरौ।
  111. निवासे विद्यानामुपहितकुटुम्बव्यवहृृति
  112. र्भवानेव श्लाघ्यो जगति गृहमेधी गृहवताम्।। महावीरचरितम्, 1/11
  113. परिषदियमृषीणामत्र वीरो युधाजित्सह नृपतिरमात्यैरोमपादश्चवृद्धः।
  114. अयमविरतयज्ञो ब्रह्मवादी पुराणः प्रभुरपि जनकानामद्रुहो याचकास्ते।। महावीरचरितम्, 3/5
  115. विद्याकल्पेन मरुता मेघानां भूयसामपि।
  116. ब्रह्मणीव विवर्तानां क्वापि विप्रलयः कृतः।। उŸाररामचरित, 6/6
  117. राजा अहो ! स्वर्गादि - वगाढोऽस्मि। अभिज्ञानशाकुन्तल, 7/11 का (गद्य)
  118. शरीरं क्षामं स्यादसति दयितालिङ्गन सुखे,
  119. भवेत्सास्त्रं चक्षुः क्षणमपि न सा दृश्यत इति।
  120. तया सारङ्गाक्ष्या त्वमसि न कदाचिद्विरहितं,
  121. प्रसेक्त निर्वाणे हृदय परितापं व्रजसि किम् ?।। मालविकाग्निमित्रम्, 3/1
  122. क्षीरिण्यः सन्तुगावो, भवतु वसुमती सर्वसंपन्नसस्या,
  123. पर्जन्यः कालवर्षी, सकलजनमनोनन्दिनो वान्तु वाताः।
  124. मोदन्तां जन्मभाजः सततमभिमता ब्राह्मणाः सन्तु सन्तः
  125. श्रीमन्त, पान्तु पृथिवी प्रशमितरिपवो धर्मनिष्ठाश्च भूपाः।। मृच्छकटिकम्, 10/61

Publication Details

Published in : Volume 2 | Issue 6 | November-December 2019
Date of Publication : 2019-12-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 56-72
Manuscript Number : SHISRRJ192613
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डॉ. गटुलाल पाटीदार, पुष्पेन्द्र कुमार सेवक, "संस्कृत नाटकों में शिक्षा-व्यवस्था", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 2, Issue 6, pp.56-72, November-December.2019
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ192613

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