Manuscript Number : SHISRRJ192690
शिक्षण में शब्द-चित्र और शब्द-संस्कार का महत्व
Authors(1) :-डाॅ0 अनिल कुमार शर्मा ध्वनि का सार्थक और उच्चरित स्वरूप शब्द है, जो आक्षरिक रूपी छोटे-छोटे चित्रों का समवाय है। भाषा मे शब्द का यही स्वरूप चाहे अपनी ध्वन्यात्मकता में कर्ण गोचर हो अथवा लिपि के रूप में नेत्रग्राह्य हो, शब्द चित्र ही है। शब्द चित्र का प्रभाव जिसे हम शिक्षण कला के क्षेत्र में शब्द - संस्कार अथवा सीखने की सहज सम्प्राप्ति कहेंगें, का नाता शिशु/बालक/छात्र की मनोवैज्ञानिक उत्सुकता से जोड़ा जाना चाहिए। आज शिशु-शिक्षा की विभिन्न शिक्षण-पद्धतियों तथा अनेक भाषा शिक्षण विधियों के प्रचलित होने पर शब्द - चित्र से शब्द - संस्कार की भारतीय पद्धति का विचार किया ही नहीं गया। शब्द संस्कार केवल भाषा - शिक्षण -पद्धति का ही विषय मात्र नहीं है, वरन प्रत्येक विषय - शिक्षण की विधि को प्रभावी बनाता हैं। नाटकों के संवादों में शब्द - चित्र ही शब्द संस्कार के रूप में दर्शकों को साधारणीकरण तक पहुँचाते हैं। शब्द - चित्र का अर्थ हैं कि शब्द ही विभिन्न सन्दर्भों, सवॉदों और वाक्य के घटक के रूप में नानाविध अर्थ बोधक और भावप्रद स्वरूपों को प्रस्तुत करता है। शिक्षा मनो विज्ञान जिसे कक्षा-कक्ष वातावरण (ब्संेेमदअपतवदउमदज) कहा जाता है, वही तो शब्द चित्र की अर्थवत्ता और भावसत्ता की भूमि हैं। शब्द का सम्यक अर्थ और समुचितभाव किसी सन्दर्भ अथवा प्रसंग में ही स्पष्ट होता है। रहीम की वह उक्ति कितनी सटीक है कि. ‘‘सैधव माँग्यों जैंवते का धोरे को काम’’ अर्थात् किसी ने भोजन करते समय यदि ‘सैधव’ (घोडा/नमक) माँगा तो नमक ही लाना होगा, उस समय घोड़े की आवश्यकता नही है। शब्द चित्र खींचकर यदि अर्थ पूछा जाये तो ही शब्दार्थ ठीक होगा। शब्द प्रयोग करते समय कई बार शब्दो में निहित संस्कारो की उपेक्षा हो जाती है क्योंकि हमारा ध्यान सामान्यतः प्रचलित अथवा रूढिगत अर्थ तक ही सीमित हो जाता है। 1857 की आजादी की लड़ाई को सिपाही विद्रोह तथा पथम स्वतन्त्रता समर या स्वतन्त्रता संग्राम कहने में स्वभावतः ‘शब्द संस्कार’ समान हो ही नही सकते। नानाविध शब्द प्रयोगों मे शब्द के जिस नाद-सौन्दर्य, उसकी अर्थगत सत्ता और भावानुभूति को आत्मसात करते हैं, वह उस शब्द का संस्कार ही है। हम जानते हैं कि प्रत्येक शब्द का एक भाव जगत, भावाकाश, भाव - धरातल और भावधारा होती हैं जो उसकी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक भूमि पर प्रस्फुटित होकर अंकुरित आर पल्लावित होकर सामान्य/विशेष अर्थगत सत्ता का अधिग्रहण करती हैं। शब्द का परम्परागत ओर रूढ़िगत प्रयोग उसको स्थायी अर्थवत्ता प्रदान करता है। संस्कार - क्षेत्र में शब्द संस्कार के अनेक आयाम एवं परिवेश हैं। शब्द - संस्कार के रूप में जो भावानुभूति होती है अथवा जो भावावेश जन्मता है या जिस अर्थ का संज्ञान लेते हैं, वे स्वयं सांस्कृतिक उन्मेष ही है। इसीलिए शब्द - संस्कारा से उद्भूत सांस्कृतिक अनुभूति या बोध भिन्न-भिन्न देश काल में समान नहाकर भिन्नता ही लिए हुए होगा। अक्षर लिपिरूप मोटा चित्र ही है जो समवेत होकर संस्कार करने वाले शब्द-चित्र का रूप धारण करता है। इसीलिए शब्द चित्र में संस्कारित करने की क्षमता है। वार्ता संवाद अथवा कक्षा-कक्ष में शिक्षक द्वारा संस्कारप्रद शब्द चित्रों का निर्माण उसके ज्ञान सागर के मोती और मणियाँ बनकर महिला-मण्डित कर शब्द सम्पदा का स्वामी सिद्ध कर देगी। शब्द - संस्कार की एक सांस्कृतिक भूमि भी होती है। शब्दो का संस्कार एक सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत करता है। हमने धर्म शब्द को रिलीजन (त्मसपहपवद) और संस्कृति शब्द को कल्चर (ब्नजजनतम) अंग्रेजी भाषा में कहा है किन्तु क्या श्धर्मश् शब्द से जो भाव जगत, अर्थ, बोध हमारे अन्तर्मन में जन्म लेता है, जो विचार जिस श्रद्धा और भक्ति के साथ हृदय में उद्भूत होता है जो चेतना जगती है क्या ये सब स्थितियाँ मनोदशाएँ और भाव शबलताएँ अनुवादित शब्दो से हृदयों और मस्तिष्कों में जन्म ले सकेंगी तो कदापि नही। प्रत्येक शब्द अपने देश की सांस्कृतिक गंध लेकर अपने भावजगत की निर्मिति करता है।
डाॅ0 अनिल कुमार शर्मा शिक्षण, शब्द, चित्र, शब्द, संस्कार, ध्वनि, कर्ण। Publication Details Published in : Volume 1 | Issue 4 | November-December 2018 Article Preview
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
चै0 शिवनाथ सिंह शाण्डिल्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय, माछरा, मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत।
Date of Publication : 2018-11-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 246-250
Manuscript Number : SHISRRJ192690
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ192690