Manuscript Number : SHISRRJ203628
दलित जीवन की परम्परा का विकास
Authors(1) :-डाॅ. गुंजन त्रिपाठी दलित के इतिहास को जानने की कोशिश करे तो पायेंगे कि भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही दलितों को पशु से भी घृणित दृष्टि से देखा गया है। इस समाज का मुख्य आधार वर्ण व्यवस्था है जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध चार वर्ण है। जाति-व्यवस्था का आरम्भ यहाँ से ही शुरू हो जाता है। शूद्र को सबसे निम्न दर्जे का माना गया और अन्य तीन वर्णों की सेवा का कार्यभार उसे सौंपकर दास कहा गया। अन्य वर्गों द्वारा इनका शोषण आरम्भ होने पर स्थिति और भी गंभीर हो गई। जाति, रंग, अस्पृश्यता, अछूत और कार्य-व्यवस्था आदि की दृष्टि से दलित को हीन भाव से देखा गया। जातियों और वर्गों में बंटे होने के कारण शूद्र सबसे घृणित माने जाते थे। समाज में जातीय विभेदों, असमानताओं, उच्चता, निम्नता, पवित्रता-अपवित्रता, धार्मिकता, अधार्मिकता की अभेद्य दीवारे खड़ी हो गई। इन्हीं असमानताओं के कारण अन्ततः दलित एवं अनुसूचित जातियाँ अस्तित्व में आई।
डाॅ. गुंजन त्रिपाठी दलित, जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, कार्य व्यवस्था, आदि। Publication Details Published in : Volume 3 | Issue 6 | November-December 2020 Article Preview
1N/5C, तिलक नगर, अल्लापुर, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश, भारत।
Date of Publication : 2020-12-30
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 60-64
Manuscript Number : SHISRRJ203628
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ203628