आर्षग्रन्थों में शाप और वरदान की अवधारणा

Authors(1) :-डॉ. भोला नाथ

शाप और वरदान वह सत्य वचन है, जिसका अनुसरण प्रकृति स्वयं करती है। सत्य सिद्ध होने पर वाणी अचूक हो जाती है। वाणी जब सत्य में प्रतिष्ठित हो जाती है तब वाक् सिद्धि होती है। सामान्य जनों की वाणी अर्थ के पीछे चलती है जबकि वाक् सिद्धि होने से ऋषियों की वाणी का अनुसरण अर्थ स्वयं करता है। वाक् सिद्धि वाक्संयम तथा तप की ऊर्जा पर आश्रित होती है। सत्य वचन से उन्नत लोकों की तथा असत्य वचन से अधम लोकों की प्राप्ति होती है। शाप में दोनों पक्ष दुःखी तो वरदान में दोनों पक्ष सुखी होते हैं। शाप और वरदान कर्म होने से कर्मफल की प्राप्ति सुनिश्चित होती है।

Authors and Affiliations

डॉ. भोला नाथ
असि.प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, गनपत सहाय पी.जी. कालेज, सुल्तानपुर, उ.प्र., भारत।

शाप, वरदान, आर्षग्रन्थ, सत्यवचन, कर्मफल, ऋषि, लोक आदि।

  1. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, गीताप्रेस गोरखपुर, सचित्र हिन्दी अनुवाद सहित, संस्करण (PDF)
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Publication Details

Published in : Volume 5 | Issue 2 | March-April 2022
Date of Publication : 2022-03-30
License:  This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 80-83
Manuscript Number : SHISRRJ221211
Publisher : Shauryam Research Institute

ISSN : 2581-6306

Cite This Article :

डॉ. भोला नाथ, "आर्षग्रन्थों में शाप और वरदान की अवधारणा ", Shodhshauryam, International Scientific Refereed Research Journal (SHISRRJ), ISSN : 2581-6306, Volume 5, Issue 2, pp.80-83, March-April.2022
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ221211

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