Manuscript Number : SHISRRJ22549
स्मृति साहित्य में वर्णव्यवस्था की अवधारणा
Authors(1) :-प्रभा चतुर्वेदी मानव के विभिन्न अंग उसके लिए जितने महत्त्वपूर्ण हैं उतने ही समाज के लिए ये चारों वर्ण आवश्यक थे। चारों वर्गों में से प्रथम तीन-ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को 'द्विज' की संज्ञा दी गयी थी। इन तीनों को द्विज इसलिए कहा जाता था कि इनका प्रथम जन्म माता के गर्भ से और द्वितीय जन्म उपनयन के समय यज्ञोपवीत धारण करने से माना जाता था।चतुर्थ वर्ण शूद्र को अन्य तीन वर्णों की अपेक्षा निम्न स्थान दिया गया था और अन्य किसी पंचम वर्ण को मान्यता नहीं दी गयी थी।
प्रभा चतुर्वेदी स्मृति, साहित्य, वर्णव्यवस्था, समाज, मनुष्य, शिक्षण, संस्कृति, सभ्यता। वर्णः। सरला दूबे, भारतीय समाज और राज्य, पृ.100 कुलान्येव नयन्त्याशु ससन्तानानि शुद्रताम् ।। कर्मणाऽपि समं कुर्याद्धनिकायाधमर्णिकः। समोऽवकृष्टजातिस्तु दद्याच्छ्रेयांस्तु तच्छनैः।। भर्तुः शरीरशुश्रूषां धर्मकार्यं च नैत्यकम्। स्वा चैव कुर्यात्सर्वेषां नास्वजातिः कथञ्चन ।। मनु., 3/15, 8/177 तथा 9/86 भातृजात्यां प्रसूयन्ते प्रवरासु च योनिषु ।। प्रतिकूलं वर्तमाना बाह्या बाह्यतरान्पुनः। हीना हीनान्प्रसूयन्ते वर्णान्पञ्चदशैव तु ।। वही, 10/27, 31 सकृदाख्यातनिर्लाह्या गोत्रञ्च चरणैः सह।। महाभाष्य, 4/1/63 (ख) शब्दकल्पद्रुमः, स्यार-राजा-राधाकान्तदेव-बाहादुर, द्वितीय काण्ड, सं.1961, पृ.530 Membership is confined to those who are born of members, and includes all persons so born (2) The members are forbidden by an inexorable social low to Marry outside the group." Ketkar, History of Caste in India, p.15. (ख) सहाय, डॉ. शिवस्वरूप, हिन्दू राज्य और समाज, प्रथम सं.1976, पृ.151 (ख) सहाय, डॉ. शिवस्वरूप, हिन्दू राज्य और समाज, प्रथम सं.1976, पृ.151 उरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।। ऋ., 10/90/12 अ.1, ब्रा.4, 11-13 (घ) महा.शा.प., 181/4, 72/4 तै.ब्रा., का.3, प्र.12, अनु.9 ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।। महा.शा.प., 181/10 (ग) तै.सं., का.4, प्र.5, अनु.4, 2-3 (घ) वाज.सं., 16/26-28 18/1 (ग) बै.ध., 10/12, 10/15 (घ) वि.ध., 51/8, 51/14, 10/4 (1) आप.ध., ___9/32 (छ) परा.स्मृ. 6/44 (ज) गौ.स्मृ., 4/4-5 तथा उपजातियाँ- मनु., 10/36 नानाधियो मसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्दो परिस्रव।। ऋ., 9/112/3 इत्येवं त्रिषु वर्णेषु विवर्तन्ते गुणास्त्रयः।। महा.आश्व.प., 39/11 वैश्यानां पीतको वर्णः शूद्राणामसितस्तथा। महा.शा.प., 181/5 स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः।। अवतानाममन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम्। सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते।। मनु., 12/113-114 (ख) आचारहीनस्य तु ब्राह्मणस्य वेदाः षडङ्गास्त्वखिला: सयज्ञाः। कां प्रीतिमुत्पादयितुं समर्था अंधस्य दारा इव दर्शनीयाः।। व.स्मृ., 168 प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः।। मनु., 11/44 कर्मणा जन्मना शुद्धं विधिना च वृणीत तम्।। एतैरेव गुणैर्युक्तं धर्मार्जितधनं तथा। याजयीत सदा विप्रो ग्राह्यस्तस्मात् प्रतिग्रहः।। शं.स्मृ., 5/18-19 धनान्तं चैव वैश्यस्य दासान्त वान्त्यजन्मनः।। वही, 2/4 यावद्वेदेन जायन्ते द्विजा ज्ञेयास्ततः परम् ।। वही, 1/8 आधिभिर्व्याधिभिश्चैव तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। वही, 7/9 which through ages has protected Hindoo society from anarchy and from the worst evils of industrial and competitive life - it is an automatic poor-low to begin with, and the strongest form known of trades Union". Townsend, Meredith, Asia and Europe, edition 1901, p.72. stability and contentment by which Indian society has been braced for centuries against the shocks of politics and the cataclysms of nature. It provides every man with his place, his coreer, his occupation his circle of friends. It makes him, at the outset, a member of a corporate body, it protects him through life from the canker of social jealously and unfulfilled aspirations.” Low, Sidney, Vision of India, Second edition 1975, p.262-263. आचारभ्रष्टदेहानां भवेद्धर्मः पराङ्मुखः।। परा.स्मृ., 1/37 तेषां जन्म द्वितीयन्तु विज्ञेयं मौञ्जिबन्धनम् ।। शं.स्मृ., 1/6 (ख) मनु., 10/4 (ग) या.स्मृ., 1/10, 1/39 Publication Details Published in : Volume 5 | Issue 4 | July-August 2022 Article Preview
शोध छात्रा, संस्कृत विभाग, राजकीय महाविद्यालय, कोटा, राजस्थान‚ भारत।
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Date of Publication : 2022-07-20
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Page(s) : 35-46
Manuscript Number : SHISRRJ22549
Publisher : Shauryam Research Institute
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