Manuscript Number : SHISRRJ23631
वर्तमान परिपेक्ष्य में व्यक्तित्व के पुनरुत्थान में अष्टांगिक मार्ग की भूमिका
Authors(1) :-दीपा आर्या वर्तमान समय वैज्ञानिक युग है। मनुष्य ने जितना विकास किया उतना ही वह अपनी स्वास्थ्य के स्तर को गिरता गया है। आज की युग में व्यक्ति ने उन्नत तो बहुत प्राप्त की परंतु व शारीरिक मानसिक चारित्रिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के स्तर को न्यूनता की ओर ले जा रहा है। व्यक्तित्व का अर्थ मनुष्य के लिए केवल वेशभूषा एवं उसका खानपान इसकी शान शौकत के इस स्तर से लगाया जाता हैं परंतु व्यक्तित्व का अर्थ इन सबसे से परे मनुष्य का भाव विचार एवं व्यवहार का सम्मिलित रूप है और जब यह मनोभाव, विचार एवं व्यवहार शुद्ध एवं स्वास्थ बनते हैं तो तभी मनुष्य का व्यक्तित्व भी उत्तम बनता है। मानव अनेक प्रकार के दोषों वाला रोगों वाला एवं निम्न मानसिकता वाला बन चूका है,जिससे उसका व्यक्तित्व मलिन हो चूका है. आध्यात्म विद्या पद्धतियों का ज्ञान एवं विज्ञान दो भागों में विभाजित करते हैं, ज्ञान पक्ष में मनुष्य एवं पशु के शिक्षा ही जाती है. इसके लिये क्या सोचना कैसे सोचना क्या करना कैसे करना और उच्च स्तरीय स्तर पर जीवन जीना यह सब सिखाते हैं, तथा विज्ञान पक्ष वह है जिसमें कुछ शारीरिक मानसिक क्रियाओं के द्वारा चरम अवस्था तक बढ़ का प्रयास किया जाता है। व्यक्तित्व विकास के लिए योग साधना में अष्टांग योग द्वारा व्यक्तित्व का विकास होता है।आज का मानव कई जटिलताओं से घिरा हुआ हैं उसके जीवन में अनेक उलझने और कठिनाई हैं, मनुष्य कितने तनाव में हैं मनुष्य में निराशा भय तथा बेचैनी है इसलिए आवश्यक है की हमारा हर कदम प्रसन्नता का प्रतीक बन जाये, उसमें पीड़ा का अंश तक न रहे। अष्टांग योग द्वारा व्यक्तित्व के विकास के रहस्य को उजागर करना हमारा उद्देश्य है, अष्टांग योग से मनुष्य के व्यक्तित्व को भाव विचार व्यवहार और शरीर सभी उत्तम रूप में प्राप्त होता है, व्यक्तित्व पुनरूत्थान से तात्पर्य एक ऐसी प्रक्रिया से है, जिसमें चिंतन चरित्र एवं व्यवहार का समय रूपांतरण हो सके और यदि हमें अपने व्यक्तित्व का विकास करना है तो सबसे पहले अपने विचारों को शुद्ध एवं पवित्र करना होगा
योग दर्शन में वर्णित राजयोग अर्थात अष्टांग योग बहुत ही महत्वपूर्ण व सभी के लिए परम उपयोगी है महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग के रूप में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि इन को आठ अंगों में बाँट दिया गया है। इन आठ अंगों का पालन करने से व्यक्ति शरीरिक, मानसिक, समाजिक व आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ्य रहता हुआ अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है। मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन एवं मानव समाज में सुख शान्ति की परिस्थितियों किस आधार पर बनेगी, यदि इस प्रश्न का संक्षिप्त सा उत्तर दिया जाए तो वह होगा, मनुष्य में मनुष्यता के विकास से इसी को प्रकाशंतर से व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास भी कह सकते है। व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास का तात्पर्य मात्र शारीरिक स्वस्थ्यता एवं बौद्धिक प्रखरता के युग्म को मानना भूल होगी, इसका सही व स्वस्थ्य स्वरूप सामाजिक नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को व्यक्तित्व में विकसित करने से प्रकट होता है।
प्रस्तुत अनुशीलन ”वर्तमान परिपेक्ष्य में व्यक्तित्व के पुनरुत्थान में अष्टांगिक मार्ग की भूमिका” प्राचीन ग्रन्थों तथा मनोवैज्ञानिक तथ्यों के विश्लेषणों द्वारा किया गया है, व्यक्तित्व और अष्टांगिक मार्ग परस्पर एक दूसरे से जुड़े हैं, शोध अध्ययन में अष्टांगिक योग मार्ग का व्यक्तित्व पर समारात्मक प्रभाव प्राप्त किया गया हैं योग के आठ अंगो में प्रथम दो अंगों यम एवं नियम द्वारा व्यक्ति का चारित्रिक अर्थात व्यवहारिक पुनरुत्थान होता हैं तथा आसन एवं प्राणायाम द्वारा व्यक्ति का शारीरिक व्यक्तित्व उत्तम बनता हैं और धारणा, ध्यान, और समाधि एवं आध्यात्मिक पक्ष का विकास होता हैं मनुष्य व्यक्तित्व उसके चरित्र शरीर मस्तिष्क आदि के स्वस्थ रहने पर स्वास्थ्य बनता हैं। अतः व्यक्तित्व के पुनरुत्थान में अष्टांगिक मार्ग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है,
दीपा आर्या अष्टांगिक, मनुष्य, योग, पुनरुत्थान, व्यक्तित्व।
Publication Details Published in : Volume 6 | Issue 3 | May-June 2023 Article Preview
शोधार्थी, योग विंज्ञान विभाग, निर्वाण विश्वविद्यालय, जयपुर
Date of Publication : 2023-06-30
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Page(s) : 01-11
Manuscript Number : SHISRRJ23631
Publisher : Shauryam Research Institute
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