Manuscript Number : SHISRRJ24760
श्रीमद्भगवद्गीता में योग की अवधारणा एवं सार्वकालिकता
Authors(1) :-डॉ.अराधिका
गीता में योग की अवधारणा एवं सार्वकालिकता इसके बहुआयामी स्वरूप में निहित है। जहां कर्मयोग कर्त्तव्य का मार्ग है तो ज्ञानयोग सत्य का प्रकाश, भक्तियोग प्रेम का सेतु है तो ध्यानयोग शांति की साधना। ये चारों योग एक-दूसरे के पूरक हैं और मानव जीवन को पूर्णता प्रदान करते हैं। अन्य ग्रंथ जैसे योगसूत्र, उपनिषद् और भक्ति सूत्र गीता के इस दर्शन को और समृद्ध करते हैं। योग केवल शारीरिक अभ्यास ही नहीं, बल्कि जीवन का संपूर्ण दर्शन है, जो आत्मा को परमात्मा से मिलन का मार्ग दिखाता है। आधुनिक युग में जहाँ तनाव, भौतिकता और अज्ञानता का बोलबाला है, वहां गीता का योग दर्शन प्रासंगिक और प्रेरणादायी है। यह हमें न केवल व्यक्तिगत शांति देता है, बल्कि सामाजिक समरसता और आत्म-जागरूकता की ओर भी ले जाता है। गीता की यह योग विषयक अवधारणा आज भी मानवता के लिए प्रकाशस्तंभ बना हुआ है।
डॉ.अराधिका
श्रीमद्भगवद्गीता, शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, योग। Publication Details Published in : Volume 7 | Issue 5 | September-October 2024 Article Preview
सहायक आचार्य, संस्कृतविभाग, बाबा बरुआ दास पी जी कालेज, परुइया आश्रम ,अंबेडकर नगर।
Date of Publication : 2024-10-20
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 60-65
Manuscript Number : SHISRRJ24760
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SHISRRJ24760