Manuscript Number : SISRRJ1818924
वैदिककालीन कृषि व्यवस्था
Authors(2) :-डाॅ. (श्रीमती) कामना सहाय,
‘‘अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्’’।1 अन्न ही ब्रह्म है क्योंकि अन्न से ही प्राणियों की उत्पत्ति होती है एवं वृद्धि होती है। मानव सृष्टि का मुख्य आधार अन्न है। इसके बिना हमारी जीवन यात्रा नहीं चल सकती है। इसलिये सृष्टि प्रारम्भ से लेकर सृष्टि प्रलय तक अन्न का ही महत्व रहा है और रहेगा। अन्न कृषि पर निर्भर है। यदि हम वैदिक काल में विद्यमान कृषि व्यवस्था को देखें तो ज्ञात होता है कि उस समय कृषि एवं पशुपालन वैदिक आर्यों की जीविका का आधार था। वर्तमान युग में हम जिस अन्न का सेवन कर रहे हैं वह भले ही आधुनिक विधि से प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो रहा है किन्तु उसका गुणात्मक स्तर न्यून होता जा रहा है। हमारे वैदिक ऋषियों ने इस गुणवत्ता को बनाये रखने के लिये ऐसे कई सूक्तों की रचना की है जिसमें कृषि एवं कृषि के साधनों को भी हमारी कृषि के अनुकूल बनाने के लिये प्रार्थना की गई है। आर्यों की धारणा थी कि मानव कल्याण के लिये देवताओं ने सर्वप्रथम खेती का काम करना आरंभ किया था। आर्य कृषि को बड़ा महत्व देते थे। ऋग्वेद में तो कहा गया है कि ‘‘अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्वः0।’’2 इसी प्रकार अन्य अनेक वेदमंत्र भी कृषि के लिये उपदेश देते हैं।3 यह उपदेश तत्कालीन कृषि प्रेम को दर्शाता है। ऋग्वेद में बताया गया है कि अश्विनी कुमारों ने स्वर्ग में हल के द्वारा सर्वप्रथम हल-कर्षण किया था तथा मनुष्य के लिये हल से जौ बो कर अन्न उत्पन्न कर के आर्य जाति के लिये विस्तीर्ण ज्योति प्रकाशित की।
डाॅ. (श्रीमती) कामना सहाय कृषि, जीवन यात्रा, आर्तना, अप्नस्वत, चाबुक, आवरणकर्ता Publication Details Published in : Volume 1 | Issue 1 | January-February 2018 Article Preview
सहआचार्य (संस्कृत), स. ध. राज. महाविद्यालय, ब्यावर (अजमेर), भारत।
Date of Publication : 2018-01-20
License: This work is licensed under a Creative Commons Attribution 4.0 International License.
Page(s) : 216-220
Manuscript Number : SISRRJ1818924
Publisher : Shauryam Research Institute
URL : https://shisrrj.com/SISRRJ1818924